सत्य और अहिंसा
सत्य और अहिंसा
सत् के साथ ल्यप् प्रत्यय के योग से सत्य शब्द की निष्पत्ति होती है । सत् का अर्थ है कि वह जो शाश्वत है, जो कभी नष्ट नही होता, जिसमे कभी कोई विकार नही होता, जो शुद्ध है, अस्तु लोक में उक्त विशेषताओ से युक्त मनसा वाचा कर्मणा जो व्यवहार होता है उसे ही सत्य कहते है । अर्थात् परमार्थ के सत् को व्यवहार में सत्य कहते है ।
हिंसा का विपरीतार्थक शब्द अहिंसा है । हिंसा संस्कृत के हिस् धातु से बना है जिसका अर्थ है 'मारना', इस प्रकार अहिंसा से तात्पर्य 'बचाना' हुआ ।वास्तव में किसी को मारने से मारेजाने वाले को जो शारीरिक और मानसिक बेदना होती है, उस पीड़ा का नाम ही हिंसा है इससे बचने और बचाने को अहिंसा कहते है । अर्थात् किसी को भी किसी प्रकार की पीड़ा न पहुचाना ही अहिंसा है । इसप्रकार मनुष्य की वह वृत्ति जो उसे हिंसा से निवृत्त करती है ,अहिंसा कहलाती है ।
सत् का साक्षात्कार करने वाले साधक मनीषी इस अव्यक्त तत्व को श्रुति प्रमाणों और निज के अनुभवो के आधार पर यह मानते है कि सत्य ,सत् का व्यक्तीकरण है । निराकार सत् जब साकार होता है तो सत्य संज्ञा प्राप्त करता है और व्यवहार योग्य बन जाता है । सामान्य जन भी तब उसे अंगीकार करजीवन की दिशा सात्विक की ओर मोड़ने में समर्थ हो सकते है । सथूल से सूक्ष्म की ओर ज्ञान का स्वाभाविक और सरल प्रवाह होता है । इस लिये योग साधना में पहले क्रम में यमो की सिद्धि बतलाई गयी है । सत्य और अहिंसा यह दोनों यम के अंतर्गत माने गए है । इनके सिद्ध हो जाने पर आगे की साधना में प्रवेश सुगम हो जाता है । वास्तव में सत्य और अहिंसा दो पृथक भाव होते हुये भी कारण -कार्य की दष्टि से परस्पर सम्बद्ध है । सत्य कारण है और अहिंसा उसका कार्य, यह कार्य परिणामी न होकर विवर्त रूप होता है क्योंकि संसार ब्रह्म का विवर्त है ।हमारे चित्त की प्रतिक्षण उठने वाली वृत्ति के अनुसार ही मन गतिमान होता है और तदनुसार ही व्यवहार में प्रवृत्ति होती है इसलिये अहिंसा वृत्ति के उदित होने पर ही अधिष्ठान रूप सत्य का साक्षात्कार सम्भव है । हिंसा आसुरी और अहिंसा दैवी वृत्ति है , हिंसा रजस् और तमस् गुणों का परिणाम और अहिंसा सत्व गुण जनित वृत्ति है । अस्तु अहिंसा वृत्ति में सदैव बने रहने के लिये आहार ,विहार,चिंतन,स्वाध्याय,संग,साथ और सम्पूर्ण परिवेश का सात्विक होना आवश्यक है । श्रीमद् भगवतगीता कहती है - " युक्ताहारविहारस्य यक्तचेष्टस्य कर्मसु
यक्तस्वप्नावोबोधस्य योगो भवति दुःखहा ।" 6/17
दुःखनाशक यह योग, यथायोग्य आहार विहार, कर्म (कर्मसुकौशलं), निद्रा और जागरण से सिद्ध होता है ।
अहिंसा की भाववृत्ति सत्यधारित अंतःकरण में ही उदित होती है ,इस तथ्य को महत्वपूर्ण मानते हुये अहिंसा को परमोधर्मः कहा गया क्योंकि" धर्म न दूसर सत्य समाना " -गोस्वामी तुलसीदास जी सत्याचरण को धर्म बताते है । अर्थात् सत्याचरण और धर्माचरण एक ही बात है ।भारत एक धर्मप्रधान देश रहा है ,धर्म व्यक्ति के जीवन में सात्विकता की स्थापना करके शांति की स्थापना का हेतु माना जाता है ,साथ ही व्यक्ति के जीवन में सत्य को प्रत्यक्षीभूत कर उसे मनुष्य होने की सार्थकता भी प्रदान करता है । सत्य की इसी विशेषता से आकर्षित होकर अनेक सुधी, सहृदय, चिंतक मनीषियों ने भौतिक साधनो से भी सत्य की शक्ति का साक्षात्कार करने के प्रयत्न किये । उन प्रयत्नों में मिली सफलता से सत्य की सांसारिक उपादेयता की पुष्टि ही हुई है । प्राचीनकाल में ऐसे अगणित उदाहरण है जिनमे आधात्मिक साधना में सत्य का साक्षात्कार करने और उसे जीवन में धारण करने की प्रबलतम इच्छा परिलक्षित होती है ।राजा हरिश्चंद्र, राजा राम, श्रीकृष्ण, महाराजयुधिष्ठिर, महावीर जैन, गौतमबुद्ध, शंकराचार्य आदि के जीवनचरित्र सत्य की महिमा का वर्णन करते है ।आधुनिककाल में मोहनदास करमचंद गांधी एक ऐसे महापुरुष हुए जिन्होंने सत्य और अहिंसा के अपने प्रयोगों से सम्पूर्ण विश्व को प्रभावित किया । उन्होंने परमार्थ के लिये की जाने वाली तपस्चर्या को लोक जीवन में सामाजिक,आर्थिक और राजनैतिक उपलब्धियों के लिये धारण करने के अभिनव प्रयोग किये जिसके कारण भारतीय जनमानस ने उन्हें महात्मा की उपाधि से न केवल सम्मानित किया ,उन्हें राष्ट्रपिता और बापू जैसे आत्मीय शब्दों से सम्बोधित भी किया । महात्मा गांधी ने सत्य और अहिंसा का प्रयोग सामाजिक और राष्ट्रिय परिप्रेक्ष्य में किया । इतिहास में संभवतः यह पहला उदाहरण होगा जिसमे बिना शस्त्र उठाये सत्ता का हस्तांतरण हुआ । गांधी जी ने सत्य और अहिंसा के साथ स्वयं जीकर देशवासियो को भी उसके साथ जीने का मार्ग दिखाया । परिणाम स्वरूप सत्य और अहिंसा की अन्तर्निहित शक्ति ने पुन्जीभूत होकर अंग्रेजी साम्राज्य को भारत छोड़ने के लिये विवस कर दिया । और अंग्रेजो की दासता से देश मुक्त हो गया ।यह उदाहरण सत्य और अहिंसा की लौकिक उपादेयता और प्रभाव को दर्शाता है ।
तात्विक दृष्टि से विचार करे तो जिज्ञासा होती है कि अहिंसक कौन और कैसे होता है ? हिंसा के लिये किसी दूसरे का होना आवश्यक है इसलिए यदि कोई दूसरा न हो तो हिंसा का होना सम्भव ही नही होगा । ऐसा सांसारिक जीवन में होना सम्भव नही लगता ,परन्तु भारतीय दर्शन जिस एकमेवाद्वितीयम् का प्रतिपादन करता है वह इस असम्भव को सम्भव बना सकता है । श्रीमद् भगवतगीता का निष्काम और समत्व योग भी पर के भाव को तिरोहित कर देता है । शंकराचार्य का जगत के मिथ्या होने का सिद्धान्त व्यक्ति को सांसारिक आसक्ति से दूर करने में प्रभावी सिद्ध हुआ है । अस्तु संसार में रहते हुये भी जल में कमलवत मनुष्य सांसारिक राग, द्वेष से मुक्त रहकर जीवन जी सकता है । भारत के ऋषियो ने साधना के द्वारा ऐसे आसक्ति रहित समाज के निर्माण की कल्पना को साकार कर दिखाया, जिसके परिणाम स्वरूप भारत में सन्त परम्परा अस्तित्व में आयी । जो केवल और केवल परोपकार के लिये ही जन्मा है, सदैव दुसरो के कल्याण की ही कामना करता है, दुसरो का दुःख और सुख उसका अपना दुःख और सुख है ,इस भाव भावना के साथ रहने वाला ही वास्तव में सन्त कहलाया । ऐसे व्यक्ति के लिये आज भी सामान्य जन के मन में अपार श्रद्धा, सम्मान और प्यार है । महात्मा गांधी के सत्य और अहिंसा के प्रयोग की सफलता का रहस्य भी उनका सन्त होना ही है । अतः स्पष्ट है कि अहिंसा की धारणा असम्भव नही है, कष्ट साध्य और तपस्चर्या पूर्ण अवश्य है । अहिंसा सिद्ध हो जाने पर उसके अधिष्ठान सत्य का साक्षात्कार सम्भव है । सत्य का साक्षात्कार होना ही मनुष्य जीवन की सार्थकता है ।
डा0 दयानन्द शुक्ल
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