श्रद्धा और विश्वास
" भवानी शंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वास रूपिणौ " वन्दना के इन स्वरों में गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्रद्धा को भवानी और विश्वास को शंकर का स्वरूप कहा है । भव से तारने वाली भवानी और कल्याणभाजन शंकर, महाकवि कालिदास के शब्दों में " वागर्थाविव सम्प्रकतौ वागर्थ प्रतिपत्तये, जगतःपितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ " जगत के माता-पिता है ,वे शब्द और अर्थ की भाँति एक दूसरे में समाहित है और शब्द-अर्थ की भाँति व्यवहार रूप है । यह जगत प्रकृति और पुरुष यानी जड़ और चेतन की संपृक्त सृष्टि है दूसरे शब्दों में भवानी और शंकर ही प्रकृति और पुरुष है भाव यह है कि केवल प्रकृति या केवल पुरुष से जगत अर्थात् व्यवहार का अस्तित्व या सृष्टि सम्भव नहीं है ।अतः निष्कर्ष रूप में श्रद्धा-विश्वास एक दूसरे में संपृक्त है एक पद सदैव दूसरे की अपेक्षा रखता है एक दूसरे से दोनों की सार्थकता है । विश्वास के बिना श्रद्धा की सृष्टि नही होती और श्रद्धा के बिना विश्वास(ज्ञान) नही होता । भगवान कृष्ण गीता में कहते है-" श्रद्धावान लभते ज्ञानम् "
"ब्रह्मसत्यम जगतमिथ्या" बताते हुये जगतगुरु शंकराचार्य जी ने जगत को अज्ञान जनित बताया है तथा सत्य रूप ब्रह्म बोध को ज्ञान कहा है । अज्ञान की निवृत्ति ज्ञान से ही सम्भव है वह ज्ञान श्रद्धावान को सुलभ हो जाता है । श्रुति कहती है -"ऋते ज्ञानान्मुक्तिः" अर्थात् ज्ञान के बिना मुक्ति नही होती । इसप्रकार श्रद्धा अर्थात् भवानी मुक्ति का हेतु है ।विश्वास का अर्थ होता है संशय रहित अर्थात सत्य, उसी की सत्ता है वही ब्रह्म है ।पुरुष सदैव श्रद्धामय है तथा प्रकृति विश्वासमय । ब्रह्म का यथार्थ स्वरूप चेतनात्मक सर्वव्यापी सत्ता के रूप में है जो इस विश्व का उदभव, अभिवर्धन और परिवर्तन का कारण है उसकी इन गतिविधियों को ही ब्रह्मा, विष्णु और शंकर कहते हैं । मनुष्य में यह ईश्वरीय सत्ता इच्छाशक्ति(भावना), विचारणा(ज्ञान) और क्रियाशक्ति के रूप में दृष्टिगोचर होती है ।
श्रद्धा गुण भेद से तीन प्रकार की होती है , श्री भगवान् कृष्ण गीता के 17वे अध्याय में अर्जुन से कहते है -
" त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा ।
सात्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां श्रुणु ।।" 17/2
वह केवल स्वभाव से उत्पन्न श्रद्धा सात्विकी, राजसी, तथा तामसी तीन प्रकार की होती है ।
श्रीकृष्ण आगे कहते है -हे भारत ! सभी मनुष्यो की श्रद्धा उनके अंतःकरण के अनुरूप होती है । यह पुरुष श्रद्धामय है, इसलिये जो जैसी श्रद्धा वाला है, वह स्वयं भी वही है
" सत्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत ।
श्रद्धामयो अयं पुरुषो यो यच्छ्रधःस एव सः ।।" 17/3
सात्विकी श्रद्धा सम्पन्न व्यक्ति देवो की, राजसी राक्षसो की और तामसी श्रद्धा वाला भूत प्रीतो की पूजा करता है -
" यजन्ते सात्विका देवान्यक्षररक्षांसि राजसाः।
प्रेतानभूतगणां श्चान्ये यजन्ते तामसा जनाः ।। 17/4
वास्तव में मनुष्य का कल्याण और अज्ञान की निवृत्ति हेतु सात्विक श्रद्धा ही महत्वपूर्ण है । रामचरितमानस में गोस्वामी जी ने सात्विक श्रद्धा की उपमा गौ से देते हुये विस्तार से श्रद्धा के महत्व को रेखांकित किया है -
" सात्विक श्रद्धा धेनु सुहाई,जौ हरि कृपा हृदय बस आई ।
जप तप ब्रत जम नियम अपारा, जे श्रुति कह शुभ धर्म अचारा ।
तेइ तृन हरित चरै जब गाई, भाव बच्छ सिसु पाइ पेन्हाई ।
नोइ निवृत्ति पात्र विश्वासा,निर्मल मन अहीर निज दासा ।
धरम धर्ममय पय दुहि भाई,अवटै अनल अकाम बनाई ।
तोष मरुत तब छमो जुड़ावै, धृति सम जावन देइ जमावै ।
मुदिता मथै विचार मथानी,दम आधार रजु सत्य सुबानी ।
तब मथि काढ़ि लेइ नवनीता,विमल बिराग सुभग सुपुनीता ।
जोग अगिनि करि प्रगट तब कर्म सुभासुभ लाइ ।
बुद्धि सिरावै ग्यान घृत ममता मल जरि जाइ ।।
तब विज्ञान रूपिनिबुद्धि विसद घृत पाइ ।
चित्त दिया भरि धरै दृढ़ समता डियथि बनाइ ।।
तीनि अवस्था तीनिगुण तेहि कपास ते काढ़ि ।
तूल तुरीय संवारि पुनि बाती देइ लगाइ ।।
सो0- एहि विधि लेसै दीप तेजराशि विज्ञानमय ।
जातहिं जासु समीपजरहि मदा दिक सलभ सब ।।
सोहमस्मि इति वृत्ति अखण्डा दीपशिखा सोइ परम् प्रचण्डा ।
आत्म अनुभव सुख सुप्रकाशा, तब भव मूल भेदभ्रम नाशा ।। "
- उत्तरकाण्ड 117-18
सात्विक श्रद्धा रूपी गाय जब दैव कृपा से हृदय में आकर बिराजमान हो जाय, वह जप तप आदि शुभ आचरण धर्म रूपी हरित तृणों को चरे,भाव रूपी बछड़े के मुह लगाने पिन्हाय तब निवृत्ति (सांसारिक प्रपञ्च से विरत) रूपी नोई कर विश्वास रूपी पात्र में, निर्मल मन जो स्वयं का दास है ,रूपी अहीर के द्वारा धर्म रूपी दुग्ध को दुहा जाय, फिर निष्कामता रूपी अग्नि पर उसे उबाला जाय, अनंतर सन्तोष और छमा रूपी वायु से ठंडा करके धैर्य और समता रूपी जामन दही बनावे,उस दही को प्रसन्नता रूपी कनोई में रख कर तत्वविचार रूपी मथानी और दम रूपी आधार का आश्रय लेकर सुंदर और सत्य वाणी रूपी रस्सी से मथ कर विमल वैराग्य रूपी मक्खन निकाले, जिसे शुभाशुभ कर्म रूपी लकड़ी ईंधन बनाकरयोगाग्नि में पकाये जब ममता रूपी मल को जल जाय तब बचे हुये ज्ञान रूपी घृत को बुद्धि से ठंडा कर प्राप्त करे ।तब विज्ञान रूपिणी बुद्धि उस ज्ञान रूपी घी को पाकर उससे चित्त रूपी दिये को भरकर समता की दीवट पर दृढ़तापूर्वक रखे। टीओ अवस्थाओ और तीनो गुणों की कपास से तुरीयावस्था रूपी रुई निकल कर उसकी सुंदर बत्ती बनावे । इसप्रकार तेज की राशि विज्ञानमय दीपक को जलावे, जिसके समीप जाते ही मदादि पतंगे जल जावें और ' सोहमस्मि ' (वह ब्रह्म मै हूँ ) यह जो अखण्ड वृत्ति है, वही परम प्रचण्ड लौ है ।इसप्रकार जब आत्मानुभव के सुख का सुंदर प्रकाश फैलता है,तब संसार के मूल भेदभ्रम का नाश हो जाता है ।
उपरोक्त विवेचन श्रद्धा की भूमका और महत्व को स्पष्ट करता है ।साथ ही किसप्रकार श्रद्धा से ज्ञान रूपी विश्वास का उदय होता है, यही शंकर है । वास्तव में यही स्वधर्म है ।मानस में संत समाज को तीर्थराज प्रयाग कहा है और स्वधर्म को अक्षयवट जो विश्वास का प्रतीक है । -"बटु विश्वास अचल निज धरमा तीरथराज समाज सुकरमा ।"यहां शुभकर्मो को उसका समाज यानी पर्रिकर कहा है ।विश्वास की महत्ता और आवश्यकता केवल परमार्थ में ही नही तो लौकिक जीवन में भी है । गोस्वामी जी कहते है -"कवनिहु सिद्धि कि बिनु विश्वासा"।और"बिनु हरि भजन न भव भय नाशा"। भक्ति मार्ग का तो यह प्रथम सोपान ही है -
" बिनु विश्वास भगति नहि तेहि बिनु द्रवहिं रामु ।
रामकृपा बिनु सपनेहु जीव न लह विश्रामु। ।।"उ0का090
श्रद्धा के सम्बन्ध में भी यही बात कुछ इस प्रकार कही है-
" जे श्रद्धा सम्बल रहित नहि सन्तन कर साथ ।
तिन कहु मानस अगम अति जिनहिं न प्रिय रघुनाथ ।।" बा0का0 38
इसप्रकार श्रद्धा और विश्वास परस्पर एक दसरे के साथ समवाय सम्बन्ध से सन्नद्ध तथा एक दूसरे के लिये अपरिहार्य है । इसीलिये श्रद्धा रूपी पार्वती ने विश्वास रूपी शंकर की प्राप्ति हेतु प्रतिज्ञा की -"वरहु शंम्भु नत रहउ कुवारी " गोश्वामी जी इसीलिये वन्दना में ही कह देते है कि-
"याभ्यां बिना न पश्यंती सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम ।" अर्थात जिसके बिना सिद्ध पुरुष भी अपने अंतःकरण में विराजमान ईश्वर को नही देख पाते है ।
लोक व्यवहार में देवस्वरूप माता पिता, गुरु तथा साधु संत, और विद्द्वत्जनो के प्रति आदरभाव प्रकट करने के लिये श्रद्धेय और श्रद्धास्पद शब्दों का प्रयोग होता है । इसका मूल हेतु भी यही है कि उक्त जन सत्या धारित होने के कारण ज्ञानस्वरूप है अतःविश्वास योग्य होते हैं । श्रद्धास्पद कभी अविश्वसनीय नही हो सकता तथा विश्वसनीय ही श्रद्धास्पद होता है ।
हरिः ॐ तत्सत् !
डा0 दयानन्द शुक्ल
सचिव वानप्रस्थ क्लब,लखीमपुर
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