योग और भोग
योग का शाब्दिक अर्थ है जुड़ना या जोड़ना, तथा भोग से तात्पर्य सुख-दुःख का अनुभव या भोजन से है । पश्चिमी दुनियां के लोग तृप्ति के लिये भोजन और भोजन से सुख की प्राप्ति ही मनुष्य का आवश्यक और अंतिम लक्ष्य मानते आये है और इस प्राप्तव्य को प्राप्त करने के लिये उन्होंने जो जीवन विधा चुनी उसके परिणाम के रूपमे वैज्ञानिक उपब्धियो से परिपूर्ण सुविधा सम्पन्न भोगवादी समाज का विकास हुआ । खाओ पियो और मौज करो के सिद्धांत को अंगीकार कर विकास के जिस सोपान पर उक्त समाज खड़ा है वहाँ अवसाद, तनाव,अपराध,घृणा,द्वेष दम्भ, पाखण्ड, अभिमान, झूठ,और मद तथा मत्सर आदि से आच्छादित अमानवीय वातावरण का निर्माण हुआ ।अंततः आज वह समाज चिर शांति की तलास में पूर्वी जगत विशेष रूप से भारत की ओर आशा भरी दृष्टि से देख रहा है जहां के विद्वान सन्तों ,गुरुओ ने शताब्दियों पूर्व भारतीय वैचारिक चेतना से सम्पूर्ण विश्व को न केवल प्रभावित किया था अपितु भारतीय जीवन दृष्टि और विधा से अभिभूत कर दिया था । जगत गुरु शंकराचार्य, स्वामी विवेकानंद, स्वामी रामतीर्थ और महषि अरविन्द तथा रवीन्द्र नाथ टैगोर ऐसे ही भारतीय चिंतक और मनीषी थे जिन्होंने वर्षो पहले भोग की निःसारता का डिम डिम घोष कर जनमानस को जाग्रत और आगाह किया था ।वर्तमान समय में योग के प्रति विश्व के अधिकांश देशो का झुकाव और संयुक्त राष्ट्रसंघ द्वारा अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस की घोषणा इस तथ्य का स्पष्ट है ।
भोग जहाँ विश्राम लेता है ,योग वही से सक्रिय होता है । भोग का सम्बन्ध जहाँ केवल शरीर से है, शरीर सुख की कल्पना से भोग का महत्व है ,वहीँ योग का सम्बन्ध शरीर के साथ साथ मन और बुद्ध से भी है । तृप्ति और तुष्टि मन का विषय होने के कारण मन सुख का अधिक महत्वपूर्ण कारक है । मन प्रकृति से चंचल है ,संकल्प-विकल्पात्मक है फलतः बुद्धि स्थिर नही हो पाती और विवेकपूर्ण निश्चयात्मक निर्णय ले पाने में असमर्थ हो जाती है ।परिणामस्वरूप मन अशांत और क्षुभित रहता है जो अनेक अकरणीय और दुःखप्रद कर्मो की ओर व्यक्ति को प्रवृत्त करता है । इस स्थिति से उबरने का समर्थ माध्यम योग है जिसका प्रादुर्भाव भारतवर्ष की तपोभूमि में हुआ । योग की स्पष्ट और विस्तृत व्याख्या सर्वप्रथम महर्षि पतंजलि ने अपने ग्रन्थ योगसूत्र में की है जिसके अनुसार योग चित्तवृत्तियों का निरोध है - " योगश्चित्तवृत्ति निरोधः " योगसूत्र 1/2 यह सूत्र योग के साध्य को परिलक्षित करता है । वास्तव में इस साध्य तक पुहचने की पूरी एक प्रक्रिया है उसका नाम योग है । इस प्रक्रिया में साधक आठ स्तरों से गुजरता है इस लिए योग को अष्टांगिक कहा गया । अंतिम स्तर या सोपान पर पहुचने पर साधक की चित्तवृत्ति का निरोध हो जाता है, उस अवस्था में साधक अनुभव करता है कि शरीर संचालक शरीर में रहते हुये भी शरीर से पृथक है और वह " मै हूं " । तदन्तर वह समस्त प्राणियो में उसी चेतना व्यापकत्व अनुभव कर कहता है - "अहम् ब्रह्मास्मि " । मै का व्यापक ब्रह्म के साथ जुड़ने ,उसके साथ एकाकार होना ही वास्तव में योग है । शरीर की आवश्यकता भोग और योग दोनों को है अंतर केवल यह है कि भोग से शरीर रोग से ग्रस्त होकर दुःख अनुभव करता है जबकि योग से शरीर स्वस्थ होकर उल्लास,आनन्द और सुख का अनुभव करता है ।
अष्टांगिक योग का पहला सोपान है -यम, इसके अंतर्गत शम दम पूर्वक मन सहित इन्द्रियों को विषयो से विमुख रखने का अभ्यास किया जाता है । दूसरा सोपान नियम नाम से जाना जाता है इसके अंतर्गत शत्रोक्त कर्तव्य कर्म और तप ,स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान आते है । तीसरे सोपान पर आसन आते है इनके अभ्यास से शरीर में स्वस्थता, स्थिरता आती है, तमरूप आलस्य और प्रमाद हटता है ,सात्विक प्रकाश से दिव्य तेज प्रकट होता है ।चौथा सोपान प्राणायाम का है, प्राणायाम द्वारा प्राण की गति को रोककर अथवा धीमा करके शरीर की आंतरिक शक्ति को सात्विक अर्थात दिव्य बनाया जाता है । प्रत्याहार नामक पाँचवे सोपान पर बहिर्मुखता को अंतर्मुखता में बदलने की क्रिया होती है ,प्रति +आहार का तात्पर्य ही है कि तम और रज गुणों को शमित करके शुद्ध सात्विक आचरण में स्थिर होना ।छठे सोपान में धारणा के द्वारा चित्त के मूढ़ और क्षिप्त तम और रज रूप को हटाकर सात्विक वृत्ति मात्र से उसे किसी एक बिषय में स्थिर करने का अभ्यास किया जाता है । सातवें सोपान में साधक ध्यान में प्रवेश करता है ,ध्यान के अंतर्गत धारणा द्वारा स्थिर किये गये मन को लगातार उसी विषय में लगाये रखने का अभ्यास किया जाता है । अंतिम आठवे सोपान का नाम समाधि है इस स्तर पर साधक ध्यान वृत्ति सेसमस्त वाह्य अनुभूतियों को हटाकर ध्येयाकार हो जाता है ।इस प्रकार योग में प्रधान रूप से चित्त वृत्तियों के निरोध के लिये एक क्रमिक वैज्ञानिक प्रक्रिया की व्यवहारिक संयोजना दिखाई देती है ।इन आठ अंगो में से प्रथम तीन शारीरिक और बाद के पांच मानसिक है ।प्रथम दो के सिद्ध होने पर ही आसन सिद्ध हो पाता है, आसन सिद्ध होजाने पर ही प्राणायाम,धारणा आदि अगले अंगो में सिद्धता हो पाती है ।यह योग सिद्ध गुरु के अभाव में सिद्ध हो पाना असम्भव है अस्तु सामान्य जनो का इस अष्टांग योग में प्रवेश सम्भव नही हो पाता है ।
योगेश्वर कहे जाने वाले भगवान श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवत गीता में योग का सरलीकृत रूप प्रस्तुत किया है वहाँ उन्होंने योग को कर्मो की निपुणता कहा है - "योगः कर्मसु कौशलम् " ।गीता मे उन्होंने सांख्ययोग,कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग,और समत्वयोग के नाम से भी योग का उपदेश किया है और योग की जीवन में महत्ता प्रतिपादित करते हुये अर्जुन से योगी होने की अपेक्षा की -
" तपस्विभ्योधिको योगी ज्ञानिभ्योपि मतोधिकः
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्मादयोगी भवार्जुन ।।"6/46
योगी तपस्वियों में श्रेष्ठ है,शास्त्रज्ञानियो में भी श्रेष्ठ है,सकाम कर्म करने वालो में भी योगी श्रेष्ठ है,इसलिए हेअर्जुन ! तू योगी हो जा ।
श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते है -
" लोके अस्मिन् द्विधा निष्ठा पूरा प्रोक्ता मयानघ ।
ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ।। " 3/3
इस संसार में निष्ठा दो प्रकार की है जैसा मैंने पूर्व में कहा है एक सांख्यानाम अर्थात सन्यासियो की दूसरी योगियों की, पहली ज्ञानयोग और दूसरी कर्मयोग से सिद्ध होती है ।
इससे स्पष्ट हो जाता है कि " योग " शब्द से अभिप्राय सामान्य जन के लिये करणीय साधना, क्योंकि विरक्त जनो के लिये" ज्ञानयोग " शब्द का प्रयोग किया गया है ।आगे छठे अध्याय में श्रीकृष्ण कहते है कि कर्मफल का आश्रय न लेकर जो करणीय कर्म करता है वह सन्यासी तथा योगी है ,केवल क्रियाओ का त्याग करने वाला योगी नही है ।जिसे 'सन्यास' नाम से जाना जाता है, उसी को तू 'योग' जान क्योंकि संकल्पों का त्याग नकरने वाला कभी योगी नही होता ।
इस विवेचना से यह निष्कर्ष निकलता है कि फ्लासक्ति का त्याग कर निष्काम कर्म करने वाला ही योगी है ,वही सन्यासी है, वही मन और इन्द्रियों को साधकर समत्व में स्थित रह सकता है ।अतः योग एक अवस्था विशेष का नाम है जिसमे पुरुष न तो इन्द्रियों के भोगो में और न सकाम कर्मो में प्रवृत्त होता है
भोग का आदि सुख और अंत दुःख देता है ,यह प्रकृति का नियम है, इसके अतिरिक्त भोग से शक्ति का ह्रास होता है, शक्ति का ह्रास होने पर रोग बिना बुलाये आ जाता है । तब भोगकर्ता भोग करने के लिये असमर्थ हो जाता है, ऐसी अवस्था में भोग से जो पहले हर्ष हुआ था,उससे कही अधिक शोक आ जाता है । योग से शक्तियो का विकास होता है तथा भोगने से विनाश होता है । योग और भोग में यही अंतर है कि भोग के लिये शब्दादि विषयो से सम्बन्ध होता है और योग के लिये विषयातीत अनंत सत्य से सम्बन्ध होता है ।
हरिः ॐ तत्सत्
डा0 दयानन्द शुक्ल
सचिव ,वानप्रस्थ क्लब, लखीमपुर
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