सेवा और समर्पण

                           सेवा और समर्पण
         " सिर भर जाऊ उचित यह मोरा,  सबते सेवक धरम कठोरा " - रामचरितमानस ,              यह चौपाई भरत मिलाप प्रसंग की है ,अयोध्या से प्रस्थान करते हुये भरत कहते है कि भैया राम नंगे पैर पैदल ही बन चले गये, जिसका कारण स्वयं को मानते हुये, रथ आदि वाहन का त्याग कर सिर के बल यात्रा करना उचित  है । अपने पूज्य और आराध्य बड़े भाई राम के दुःख की संवेदना सेवक भरत के शब्दों में जिस मार्मिकता के साथ ध्वनित होती है ,उससे सेवा धर्म की प्रासंगिकता स्वयं स्पष्ट होती है । यहां हम सेवा धर्म के मर्म को हृदयंगम करने का प्रयत्न करेंगे और इसी निमित्त से सेवा सम्बन्धी मुलभूत और यथार्थ चिन्तन आपके समक्ष है ।
              जिस कार्य से किसी को सुख मिले उसका नाम सेवा है और सेवा का जन्म जिस भाव से होता है उसे समर्पण कहते है । समर्पण के बिना सेवा का उदय होता ही नहीं । समर्पण कारण है और सेवा उसका कार्य है । सेवा के दो रूप है - स्वयं सेवा तथा लोक सेवा, दोनों ही लोक और परलोक की दृष्टि से सदा सर्वदा कल्याण के हेतु है । सेवा से अंतःकरण और चित्त की शुद्धि होती है जिससे पापो का क्षय होता है और भगवान से निकटता बढ़ती है ।मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि वह सबसे पहले अपने अस्तित्व और उसके संरक्षण के लिये प्रवृत्त होता है । इसके बाद मोह ममता वश अपने परिवार, कुटुम्ब और निकट सम्बन्धियो को अपना मानता है और उसके बाद स्वार्थ सिद्धि में सहायक जनो को भी अपना हितू मानने के कारण अपना मानता है । अतः इन्ही तक मनुष्य की चेष्टा व्यवहारिक रूप से सीमित रहती है परिणाम स्वरूप सेवा का क्षेत्र सीमित और संकुचित रहता है । वास्तव में सेवा वह है जो किसी दूसरे को सुख देने के लिये निष्प्रह और निष्काम भाव से की जाती है  । मन से सबका हित चाहना ही सेवा है । ऐसा तभी सम्भव है जब हम सबमे स्वयं को देखे । " आत्मवत् सर्वभूतेषु " की भावना से दूसरे का सुख दुःख अपना सुख दुःख हो जाता है । पर की भेद दृष्टि ही नही रहती ,इस अवस्था में हमारी समस्त चेष्टाएँ सेवा रूप हो जाती है और किसी की भी सेवा स्वयं सेवा होती है । यह  मनुष्य  को आत्मतुष्टि प्रदान करती है ।इसमें कृतिमता, दिखावा, आडम्बर या अहंकार आदि के लिये कोई स्थान नही होता है ।इसप्रकार की सेवा पूर्णतः निष्काम होती है । निष्काम सेवा का अधिष्ठान यह भावना है कि संसार जगतनियंता की लीलास्थली है जिसमे वह परमप्रभु स्वयं विविधि रूपों में अपने खेल रचता है और स्वयं ही खेलता है ।उस महा प्रभु से साक्षात्कार करने का एक साधन तन, मन, धन, पद, प्रतिष्ठा,मोह, ममता और अहंकार का पूर्ण समर्पण है । तेरा तुझ को अर्पण क्या लागे मेरा की भावना से समस्त सांसारिक व्यवहार परमात्मा के है ,परमात्मा के लिये है ,हम निमित्त मात्र हैं , कठपुतली की भाँति उनके खेल के साधन है ।रामचरितमानस में गोस्वामी जी ने कहा है " -सबहि नचावत राम गोसाई ", तो वास्तव में प्रभु को समर्पित साधक संसार के तत्व को जानकर संसार से आसक्त नही होता, वह अपनी हस्ती मिटाकर संसार में ,जलमे कमल की भाँति, रहता है । वह किसी की सेवा करना चाहता है अथवा कर रहा है ,ऐसा कोई भाव उसमे उदय नही होता ,उसकी समस्त चेष्टाएँ सेवा रूप होती है ।
             व्यवहार जगत में लोक सेवा भी समानरूप से महत्वपूर्ण है आत्मा ही समष्टिरूप से परमात्मा है इस लिए लोकसेवा वास्तव में भगवान की ही सेवा है । लोक सेवा खूब करनी चाहिये । मनुष्य का वयक्तिगत अस्तित्व समाज सापेक्ष है । बिना समाज के सहयोग वह जी नही सकता ,जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त मनुष्य का भरण पोषण, शिक्षा दीक्षा और विकास समाज से प्राप्त होता है अतएव वह समाज का ऋणी है । समाज के इस ऋण से मुक्त होने के लिये लोक सेवा परमावश्यक है । लोक सेवा प्रायः लोग समाज में स्वयं को विशिष्ट दिखाने के लिये करते है । अधिकांशतः लोकसेवा करने वालो का कोई न कोई स्वार्थ छिपा रहता है । कुछ समर्थ लोग अन्न ,वस्त्र, धन आदि के द्वारा दुसरो की सहायता करते है ,यह लोक सेवा की दृष्टि से सराहनीय है परन्तु जब ऐसी सेवा के पीछे अपने प्रभुत्व को प्रदर्शित करने अथवा यश लोलुपता या अन्य कोई निजी लाभ की भावना होती है तब वह कार्य सेवा की कोटि में नही रह जाता है  वास्तव में सेवा के बदले में कुछ भी चाहना सेवा को बेच देना है, सेवा वह है जो निष्प्रह की जाय । इसके अतिरिक्क्त देश, काल और पात्र का विचार करके सेवा की जानी चाहिये । यथा गंगा के तट पर प्याऊ लगा देना सेवा नही है  । लोक सेवा का एक नाम परोपकार भी है । हमारे प्राचीन ग्रंथो में परोपकार की महिमा का बहुत वर्णन किया गया है । महात्मा तुलसीदास ने मानस में कहा है  -
" परहित सरिस धर्म नहि भाई, परपीड़ा सम नहि अधमाई ।"
महर्षि वेद व्यास कृत पुराण साहित्य के विषय में एक विद्वान समीक्षक ने कहा है - " अष्टादस पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम ।
     परोपकारः पुण्याय पापाय परिपीडनम ।।"
जिस कार्य से दूसरे का उपकार हो उसके समान कोई धर्म नही है अर्थात अन्य कुछ करणीय नही है । परोपकार पुण्य का और परपीड़न पाप का माध्यम है । इसप्रकार लोक सेवा केवल दुसरो की सेवा नही है अपितु स्वयं के लिये भी कल्याणकारी है ।अतः लोकसेवा का  बड़ा महत्व है परन्तु वह उदारता और दयाबुद्धि पूर्वक होनी चाहिये । धन, सम्पत्ति, शारीरिक सुख और मान बड़ाई, प्रतिष्ठा आदि को न चाहते हुये ममता, आसक्ति और अहंकार से रहित होकर मनसा, वाचा, कर्मणा ,धन और शरीर द्वारा सभी प्राणियो के हित में रत होकर उन्हें सुख पहुचने की चेष्टा करना लोकसेवा है । भारतीय संस्कृति लोकसेवा का आदर्श प्रस्तुत करती  है , यह उद्घोष करती है -
  " सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया
     सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभागभवेत ।"
लोकसेवा भी बिना समर्पण के सिद्ध नही होती,  उसके लिये भी " बसुधैव कुटुम्बकम् " और " माता भूमिः पुत्रोहम पृथिव्याम् " की भाव भावना से स्वयं को संस्कारित करने की साधना आवश्यक है ।उक्त भावना से संस्कारित व्यक्ति का  दृष्टिकोण व्यापक हो जाता है, वह सम्पूर्ण मानव जाति को अपना परिवार और सम्पूर्ण धरती को मातृवत् प्रेम करता है । प्रेम समर्पण का आधार है, जिससे जो प्रेम करता है उसके प्रति उसका स्वाभाविक रूप से समर्पण होता है ।
            साधन साध्य का कारक होता है , सेवा रूपी साध्य के साधन के विषय में विचार भी महत्वपूर्ण है । साध्य की सिद्धता साधन की पवित्रता, क्षमता, दक्षता और समर्थता पर निर्भर करती है । व्यवहारिक जीवन में प्यासे को पानी, भूखे को अन्न, नंगों को वस्त्र, बीमार को दवाई, अशिक्षित को शिक्षा, भयभीत को अभयदान आदि अनेक सेवा के साधन है । इन सभी की पवित्रता  हमारे भीतर के भावानुसार ही होती है । भाव प्रमुख रूप से तीनप्रकार से सेवा को सिद्ध करने में सक्षम है । पहला - हम सब एक ही ईश्वर की सन्तान है अर्थात् हम सब एक दूसरे के बन्धु है, दसरा - आत्मदृष्टि से सभी एक है, और तीसरा - परमात्मा आत्मा रूप में सभी भुत प्राणियो में विद्यमान है । इनमे क्रम से उत्तरोत्तर श्रेष्ठ है ।
            उपरोक्त भावो से सेवा, भगवान् के साक्षात्कार का साधन बन जाती है । सेवा में क्रिया की अपेक्षा भाव की प्रधानता है अस्तु उत्तम देश, काल और पात्र के प्राप्त होने पर भाव सहित न्यायानुकूल सेवा करनी चाहिये । अपने से बड़े, पूज्य, दुखी, लाचार जनो की सेवा अधिक महत्वपूर्ण है । जो भी मिले उसके साथ प्रसन्न भाव से और मधुर वाणी से प्रेमपूर्वक व्यवहार करना चाहिये । तन, मन, धन से दीन दुखियो, माता पिता और गुरुजनो की सेवा श्रेष्ठ है । सेवा का अवसर प्राप्त होना व्यक्ति का परमसौभाग्य है ।
             सेवा के अनेक स्वरुप है- दुसरो को मान बड़ाई देना, रोगी  की देख भाल और उसके मल मूत्र, घाव आदि की सफाई स्वच्छता,पत्तल उठाना, पैर धोना, आदि सेवा के ऐसे रूप है जो साक्षात भगवान की दया से प्राप्त होते है  । भगवान की कृपानुभूति से ही यह सेवा सम्भव हो पाती है तदर्थ समर्पण ही मुख्य आधार और कारक है । समर्पण से अभिमान तिरोहित हो जाता है जिससे सेवा बन पाती है । सेवा में सर्वाधिक महत्व की बात यह है कि सेवा का बखान न किया जाय , सेवा की चर्चा करने से अभिमान के जाग्रत होने की सम्भावना रहती है  अस्तु निष्काम और गोप्य भाव से सेवा करनी चाहिये ।
हरिः ॐ तत्सत्
डा0 दयानन्द शुक्ल

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