मानवता

                    भारतीय संस्कृति मानव धर्म  के सृजन,विकास और नरपशु को मनुष्य बनाने का अन्यतम अनुष्ठान है । मनुष्योचित व्यवहार की अपेक्षा मानव सभ्यता का निकर्ष है । पूर्ण विकसित मनुष्य जब मानव होने का गौरव प्राप्त कर लेता है तभी वह सम्पूर्ण जीवधारियों में श्रेष्ठ कहलाता है । नर पशु से मनुष्य, और मनुष्य से मानव बनने की यात्रा अत्यन्त कष्टसाध्य है जो संकल्प और साधन साध्य है । यह यात्रा फलवती होती है " मानवता " के रूप में । युगपुरुष और मनीषी आचार्य श्रीराम शर्मा  जी ने सत्य ही कहा है कि मनुष्य का जन्म तो सहज है परंतु मनुष्यता उसे कठिन प्रयत्न से प्राप्त होती है  । वास्तव में मनुष्यता का ही दूसरा नाम मानवता है । मानवता ही मनुष्य का अभीष्ट है , मानवता ही मनुष्य का भूषण है  । भारत के प्राचीन ऋषियो ने इस तथ्य का साक्षात्कार कर नरको मनुष्य बनाने की विधा विकसित की  अर्थात साधन मार्ग प्रशस्त किया ।
                   मानवता या मानवधर्म की स्थापना की दृष्टि से  धर्म के लक्षणों को मनुसमृति में इस प्रकार कहा गया है - " धृतिः क्षमा दमोस्तेयं शौचं इन्द्रिय निग्रहः, धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम् । " अर्थात  धारणा, क्षमा, संयम, निन्दा न करना, पवित्रता, इन्द्रियों पर नियंत्रण, धैर्य, बुद्धिमत्ता, सत्याधारिता, और अक्रोध यह दस लक्षण वाला धर्म है । वास्तव में ये मानवीय गुण है  जो मनुष्य में मनुष्यता के जनक है और सनातन धर्म के अभिन्न अंग  है, भारतीय संस्कृति इन्ही तत्वों से रची गढ़ी है । यही कारण है कि भारतीय संस्कृति प्रधानतया मानवता की पोषक है । प्रत्येक सनातनधर्मी जीवन में उक्त गुणों को धारण करने और मनुष्यता की सिद्धि को ही जीवन की सार्थकता मानता है  ।
                    मनुष्य शरीर बड़े भाग्य से मिलता है , गोस्वामी तुलसीदास जी रामचरितमानस में लिखते है -"बड़े भाग्य मानसु तन पावा, सुर दुर्लभ सद ग्रंथन गावा" इस कथन का तात्पर्य यही है कि प्रकृति ने जो क्षमता इसको दी है वह अन्य शरीरो को नही । मुख्य रूप से बुद्धिविवेक अन्य जीवो में नही पाया जाता है, विवेक शक्ति मनुष्य का वैशिष्ट्य है ,जिसके कारण मनुष्य मानव के स्तर तक जा सकता है । मानव ही सम्वेदना के स्तर पर समस्त चराचर जगत को सम भाव से देखने में समर्थ हो पाता है । इस स्थिति में उसके द्वारा होने वाला आचरण या व्यवहार मानवधर्म कहलाता है और उसके चित्त की वह अवस्था जिससे मानवधर्म प्रवृत्त होता है मानवता कहलाती है ।
                     मानवता की लौकिक उपादेयता केवल इतनी है कि इससे एक नैतिक समाज की स्थापना होती है जो किसी देश में शान्ति  स्थापना के लिए परमावश्यक है ।पारमार्थिक दृष्टि से मानवता जीवन का अभीष्ट है । मानवता के उदय होने पर एक व्यापक तत्व की अनुभूति और, उसकी अनंतता का बोध होता है जिससे पर का भाव तिरोहित हो जाता है । परिणाम स्वरूप व्यक्ति राग-द्वेष् से मुक्त होकर समत्व योग में स्थित हो जाता है जिससे दुःख की आत्यंतिक निवृत्ति हो जाती है और मनुष्य आनन्द  का अनुभव करता  हैं। मानव कोटि के मनुष्य के द्वारा होने वाले कर्म स्वाभाविक होने के कारण निष्काम होते है जिससे वे बंधनकारक नही होते हैं । इसप्रकार मानवता मुक्तिकारक है । असार संसार को नित्य मानना  ही अग्यानता है ,अग्यानता ही सांसारिक राग का कारण है और राग ही बंधन का कारण है  अस्तु दुःख का मूल कारण अग्यानता ही है । अग्यान की निवृत्ति केवल ग्यान से ही सम्भव है और वह ग्यान आनन्द स्वरुप है जो केवल अनुभव सिद्ध है अर्थात मानवता से ही ग्यान सिद्ध होता है यानी मानवता ग्यान का अधिष्ठान है  ।ै
                       सामान्य रूप से बिना किसी अपेक्षा के किसी के प्राणों की रक्षा करना, किसी प्यासे को पानी पिलाना, किसी भूखे को भोजन कराना, किसी भूले भटके को रास्ता दिखाना, किसी नंगे को वस्त्र देना तथा किसी को सद्विचारों से ग्यान देने आदि को मानवीय कार्य कहा जाता है । ऐसे कार्य परोपकार की श्रेणी में आते है । पात्र की सहायता को परहित कहते है । गोस्वामी तुलसीदास जी ने मानस में कहा है - परहित सरिस धर्म नहि भाई । परोपकार अर्थात् परहित करना वह भी बिना किसी लाभ या प्रत्युपकार की अपेक्षा के, वास्तव में मानवता के बिना यह आकाश पुष्प की भाँति दुर्लभ है । अतः मानवता लोक जीवन को सुन्दर, सुशील, सभ्य, स्वस्थ्य और शांतिपूर्ण बनाने के लिए भी अनिवार्य और अन्यतम है । इसप्रकार मानवता को मनुष्य का श्रेष्ठतम धर्म कहना या मानना उचित ही है । यही कारण है की हमारे (भारतीय) शास्त्रो नें मनुष्य को मानव बनाने का साधन मार्ग प्रशस्त किया है । जैसा कि पीक्षे कहा जा चूका है  मानवता का अधिष्ठान मानव है अस्तु मनुष्य को मानव का स्तर प्राप्त करने का सदैव प्रयत्न करना चाहिये  । इस साधना में गुरु और शास्त्रो की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण है । श्रीमद् भगवत गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते है - " यः शास्त्रविधि मुत्सर्जय वर्तते काम कारतः, न सः सिद्धिम प्राप्नोति न परांगतिम्  ।" अर्थात शास्त्र का उल्लंघन करने वाले को न तो सिद्धि प्राप्त होती है और न परमगति । यहा परमगति से तात्पर्य मनुष्य का मानव होना है ।
                          अहिंसा परमोधर्मः भारतीय संस्कृति का वैशिष्ट्य है ,जीवमात्र के प्रति प्रेम इस विचार में निहित है । सभी के प्रति दया का भाव ,सौहार्द ,प्रेम हमारे सह अस्तित्व के लिये परमावश्यक है । हमारे व्यवहार में इसका प्रकटीकरण ही मानवता है ।" दया धर्म का मूल " में इसी विचार का समर्थन है ,अर्थात्  मानवता मानव मन का व्यवहारिक व्यक्तीकरण है । सहिष्णुता मानव मन में ही जन्म लेती है, इसिलिय मनुष्य का पहले मानव बनना आवश्यक है कयौकि मानव से मानवता है । मानव होना वास्तव में मनुष्य की पूर्णता है इसीलिये वेद-वेदांत, धर्मशास्त्र और ग्यानी संत सभी मनुष्य को मानव बनाने का साधन बताते है ,यह साधन ही सनातन धर्म है । वैदिक, जैन , बौद्ध , सिख , आदि इसी सनातन धर्म की शाखाये है । ऐतिहासिक कारणों से सनातन धर्माधारित समाज किसी समय हिन्दू कहलाया और सनातन धर्म हिन्दू धर्म हो गया जो आजतक चला आ रहा है । इसप्रकार  हिन्दूधर्म वास्तव में सनातन धर्म ही है और यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि हिन्दूधर्म मानव सभ्यता का आदि विचार है जिसमे मानवता का जन्म हुआ है । जम्बूद्वीप-भरतखण्ड अर्थात भारतवर्ष मानवता की जन्मभूमि है । भारत माता के तेजस्वी पुत्रो, महापुरुषों, ऋषियो ने आदिकाल से अबतक सदैव मानवता का दिव्य प्रकाश समस्त भूमंडल पर फैलाया है  । यही कारण है की भारत कभी विश्व गुरु कहा जाता था । यह गौरव पुनः यदि प्राप्त करना है तो उसका आधार मानवता ही होगा कयौकि मानवता की शाश्वत सत्ता है  ।
                      अतिथि देवो भव , गुरुर्देवो भव , मातृ-पितृ देवो भव आदि के संस्कार मानवता को सम्मानित करने वाले है, गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते है - " तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ,उपदेक्ष्यन्ति ते ग्यानम ज्ञानिनस्तत्व दर्शिनः । अर्थात् सदगुरु के चरणों में विनत होकर श्रद्धा पूर्वक सेवा करके गुरु से मन की शंकाओ के सम्बन्ध में जिग्यासा कर समाधान  पाया जा सकता है । वास्तव में साधना मार्ग में मन के सन्देह ही लक्ष्य प्राप्ति में विघ्न है , मानव होने के लिये या कहे कि मानवता की सिद्धि प्राप्ति में निमित्त कारन के रूप में गुरु तथा उपादान कारण के रूप में श्रद्धापूर्वक सेवा प्रमुख हेतु है । मानस में गोस्वामी तुलसीदास जी कहते है - " सबते सेवा धर्म कठोरा "  तात्पर्य यह है कि जब मानवता सेवा धर्म के रूप में व्यक्त होती है तबवह  मानवीय तपश्चर्या की द्योतक होती है । निबल,असहाय, अशक्त और दींन जन की सेवा एक तपश्चर्या है जो मानवता की तीब्रता और संकल्प की दृढ़ता के बिना सिद्ध नही होती, इसलिये भी मानव होने की साधना में संकल्प, विश्वास,समत्व, श्रद्धा और सेवा के संस्कार चाहिये ।सेवा में किसी प्रतिदान की अपेक्षा नही होती ,सेवा सभीप्रकार के ऋणों से मुक्ति पाने का निश्चित सर्व सुलभ साधन है । सत्य तो यह है कि सेवा संसार को ब्रह्म रूप में स्वीकार करने की विवेक दृष्टि के प्रति विशुद्ध विश्वास  की द्योतक है ।
                          मानवता मानव की वह अव्यक्त शक्ति है जो दृष्टि को व्यापक बनाती है ,मन को समत्व में रखती है,बुद्धि की संकीर्णता समाप्त कर उसमें विवेक जाग्रत करती है, वाणी को मधुरता प्रदान करती है तथा अंतःकरण को शान्त और जाग्रत अवस्था में रखती है । मानवता  के प्राबल्य से  मानव दूसरो के दुःख को स्वयं में अनुभव करता है जिससे वह अपने समाज के प्रति संवेदनशील होता है । मानवता हमारे चिन्तन को शुद्ध, सात्विक बनाती है, रचनात्मक दिशा प्रदान करती है, जीवन को सार्थकता प्रदान करती है । मानवता हीन मनुष्य नर पशु से अधिक कुछ नही है । कहा गया है - "साहित्य संगीत कला विहीनः साक्षात पशु पुच्छ विषाण हीनः" साहित्य ,संगीत और कला इन तीनो की साधना का फल मानवता की सृष्टि ही है ।
                            मनुष्य के लिये भक्ति, ग्यान और योग यह तीनो साधना पथ  अंत में मानवता के मन्दिर में  ही पहुचाने वाले है । भक्ति पूर्ण समर्पण का मार्ग। है, इसके   सिद्ध होने पर मनुष्य का अपना कुछ नही रहता,सम्पूर्ण सृष्टि उसके आराध्य की है सबका वह मालिक है, उसकी समस्त चेष्टाएँ उसकी प्रसन्नता के लिए होती है । मनसा,वाचा, कर्मणा किसी को दुःख देना पर्भु की व्यवस्था में एक हस्तक्षेप मानता है जो सबका पिता है वह अपने किसी भी पुत्र को दुखी कैसे देख सकता है अतः भक्ति मार्ग पर चलने वाला दूसरे को, दुखदेना अपने मालिक को दुखी करना मानता है इसलिये उसके हृदय में मानवता " सियाराम मय सब जग जानी" के भाव के रूप मे परकट होती है। ग्यानी के लिए तो दुसरा कोई है ही नही, वह कहता है " एकमेवाद्वतीयम् " उसका मार्ग समत्व का मार्ग है जिसमे सबके सुख और दुःख अपने सुख और दुःख है ।वह अपना अस्तित्व शरीर से पृथक और अकर्ता स्वीकारता है । शरीर प्रकृति जन्य और प्रारब्ध के फल भोग के लिये है, शरीर अर्थात् पुनर्जन्म से मुक्ति दुखनिवृत्ति का साधन मानता है अतः क्रियमाण अवस्था में त्रिगुणातीत रहता है । ऐसे व्यक्ति के ह्रदय में मानवता बोद्ध रूप में प्रकट होती है । योगस्थ मनुष्य वृत्तियों की निवृत्ति के लिये अष्टांग मार्ग का अनुसरण करता है, व्यवहार में " योगः करमसु कौशलम् " के अनुसार निष्कामता के अधिष्ठान पर कर्म में प्रवृत्त होता है । फ्लाशक्ति रहित, निष्कामी व्यक्ति व्यक्ति से किसी को दुःख पहुच सकता है यह कल्पनातीत है ।ऐसे साधक के ह्रदय में मानवता ध्यान रूप से प्रकट होती है । निष्कर्ष यही है सभी साधन पथ मनुष्य को मानवता की ओर प्रवृत्त करते है, मानवता की उपलब्धि ही मनुष्य जीवन का साध्य है । मानवता की प्राप्ति,और विकास में ही मनुष्य जीवन की सार्थकता है ।

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