शांति की खोज
इस जगत में वह चीज जिसकी चाह सबको है, 'शांति' है । व्यवहार में ऐसा देखा जाता है कि तुष्टि में शांति का निवास है, अर्थात तुष्टि होने पर ही शांति का अनुभव या साक्षात्कार होता है । अतः तुष्टि के सम्बन्ध में विचार प्रथमतः आवश्यक है । वास्तव में तुष्टि नानाविध है ,जितने प्राणी है सबकी तुष्टि भिन्न भिन्न है और उसकी प्राप्ति के माध्यम भी भिन्न भिन्न है अस्तु उसका स्वरुत निर्धारण करना कठिन ही नही अपितु असम्भव है । गीता में भगवान् कहते है कि अष्टधा प्रिकृति से सम्पूर्ण जीव-जगत की सृष्टि हुई है-
"भूमिरापो अनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च
अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिर्ष्टधा ।
अप्रीमितस्तवदन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्
जीवभूतां महाबाहो ययेदम धारयते जगत ।" 7/4-
अर्थात् भूमि,जल, अग्नि, वायु और आकाश तथा मन , बुद्धि, और अहंकार- यह आठ प्रकार के भेदो वाली मेरी प्रकृति है । जो जड़ और अपरा कहलाती है । इससे दूसरी को जीवरूप 'परा' या चेतन प्रकृति जान, जिसने सम्पूर्ण जगत को धारण किया हुआ है । इसप्रकार वह जीवात्मा भी प्रकृति के सम्बन्ध में रहने के कारण प्रकृति ही है ।
तुष्टि मन का विषय होने से ,या कहे कि तुष्टि का निवास स्थान मन है ,शांति के सन्दर्भ में मन ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण है अतः मन की प्रक्रिया के सम्बन्ध में विचार आवश्यक है । गीता में अर्जुन भगवान् से कहता है - "चंचलः हि मनः कृष्ण, परमाथिबलवद्र्धम " अर्थात् मन चंचल ,बलवान और हठी है, ऐसा मन का स्वभाव है । मन की एक और विशेषता है कि वह अभ्यासी है ,इस लिये अभ्यास के द्वारा उसका संयमन भी किया जा सकता है ।इंद्रियां जब विषयो की और अभिमुख होती है तो सर्वप्रथम मन उसका संज्ञान लेता है और संकल्प विकल्प करता हुआ बुद्धि को प्रेरित करता है । बुद्धि निश्चयात्मक बोध कराती है तदन्तर व्यवहार होता है और करणीय, अकरणीय तथा अच्छे, बुरे या कहे कि पूण्य , पाप कर्म होते है । शास्त्र कहते हैं कि पूण्य से सुख और पाप से दुःख की प्राप्ति होती है । सुख और शांति स्थूल दृष्टि से समानार्थी कहे जा सकते है क्योंकि तुष्टि के बिना न तो सुखनुभव और न शांति का ही अनुभव होता है परंतु तात्विक विचार से इन दोनों में भी भेद है । प्रायः देखा जाता है कि तुष्टि के रहते हुये भी मनुष्य दुखी होता है तथा सुखी होते हुये भी सन्तुष्ट दिखाई नही पड़ता । शांति आने पर सांसारिक परपंच नही रह जाते, किसी प्रकार की चाहना नही रह जाती । अतः कहा जा सकता है कि सुख होने पर शांति होसकती है परंतु सुख सदा नही रह सकता, सुख के बाद दुःख और दुःख के बाद सुख ,यह चक्र चलता ही रहता है । अतः नित्य शांति का माध्यम केवल सुख नही हो सकता । दुसरी और शांति ब्रह्म का एक अनिवार्य लक्षण है , आत्मा को प्रशांत कहा जाता है । बूँद और समुद्र की भाति आत्मा और परमात्मा में कोई भेद नही है अस्तु शांति परमात्मा का स्वरूपगत लक्षण ही है जो नित्य और सर्वव्यापक है । अस्तु शांति भी नित्य और सर्वव्यापक है । यहाँ यह जिग्यासा होती है कि फिर शांति नित्य और सबको उपलब्ध क्यों नही होती, इसका कारण यह है कि संसार नित्य नही है वह नाशवान और विकारी है । जिसमे जो है ही नही वह उसमे कैसे उपलब्ध हो सकता है ।
हमारा मूल स्वभाव ही शांत है, सृष्टि का कण कण अपने मूल स्वभाव में ही रहना चाहता है । प्सिद्ध वैग्यानिक न्यूटन के जड़त्व के नियम भी इस स्तय की पुष्टि करते हैं । पेड़ की डाल या शाखा को झुका कर छोड़ देने पर वह तब तक हिलती रहती है जब तक अपनी मूल स्थिति प्राप्त नही कर लेती । कहने का अभिप्राय यह है कि मनुष्य भी प्रकृति से भिन्न नही है उसका स्व स्वभाव निर्विकारी और शांत है परंतु वह स्वभाव के बिपरीत सांसारिक परपंच में पड़कर ,मन का गुलाम बना हुआ है परिणाम स्वरूप जीवन भर अशांति ही संग्रह करता रहता है ।यह कम आश्चर्य की बात नही कि अशांति का संग्रह कर,ने वाला चाहता शान्ति ही है । इसका कारण यह स्व का मूल स्वभाव शांत है परन्तु विडम्बना यह है कि वह स्व का साक्षात्कार नही क्र सका, वह जो है उससे भिन्न अपने शरीर को ही स्व समझ कर आचरण कर रहा है । वस्तुतः अशांति के कारक लोभ, मोह, क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष, राग, अहंकार, मद, मत्सर,और कामवासना आदि शरीर धर्मो को,जो क्षणिक,अनित्य और विकारी है, को ही स्वधर्म मानकर मनुष्य ने अपने चारो और अशांति का गहन बवंडर आच्छादित कर लिया है जिसके कारण शान्ति का साक्षात्कार उसीप्रकार नही होता जैसे बादलो से ढक जाने पर सूर्य । जैसे प्रकाश के बिना अंधकार की निवृत्ति नही होती, जैसे ग्यान के सिवा अन्य कोई अग्यान की निवृत्ति नही कर सकता उसीप्रकार अशांति की निवृत्ति हुये बिना शान्ति प्राप्त नही हो सकती ।
अशांति की निवृत्ति के लिये हमे अपने मूल की ओर लौटना होगा, अपने आप को जानना होगा, स्व को पहचानना होगा । इसके लिये मन को आच्छादित करने वाले रागद्वेषादि मलो को धोकर तथा कामनाओ के विच्छेपो का अभ्यास और ईश्वर प्रणिधान के द्वारा शमन करना होगा । रामायण में भगवान राम कह्ते है -"निर्मल मन जन सो मोहि पावा" अतः मनोनिग्रहपूर्वक योगारूढ़ होकर चित्तवृत्तियों का निरोध क्र पर्मशान्त और अव्यय पद में ध्यानस्थ होना चाहिये ।श्रीमद्भगवतगीता के अनुसार-
" निर्मानमोहा जितसंगदोषा, अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामा
द्वंदैरविमुक्ता सुख दुःख संगयैर गच्छंतिमूढा पद्मव्ययं तत् ।" 15/5
अर्थात् जो मान, मोह से रहित, जिसने इन्द्रियों को जीत लिया है, प्रति क्षण परमात्मा में लीं है,जो चाहनाहीन है, और सुख दुःख रूपी द्वंदों से मुक्त हो गया है ,ऐसा ग्यानी पुरुष उस परम् शांतिस्वरूप अव्यय पद को प्राप्त होता है ।
लेख को अधिक विस्तार न देते हुये सार रूप में इतना कहना पर्याप्त है कि शांति भाव रूप है जो सनातन,शाश्वत और सर्वत्र है । इस जगत में उसे ' आत्मवत् सर्वभूतेषु' की दृष्टि से देखा जा सकता है ,और ' तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा ' के द्वारा पाया जा सकता है । उपनिषद स्पष्ट निर्देश करती है -"ईशावास्यमिदं सर्वम् यत् किंचित जगत्यां जगत " अर्थात जगत में जो कुछ भी है वह अव्यक्त परमात्मा का ही व्यक्त रूप है । रूप होने से विकारी और नाशवान भी है परंतु परमात्म सत्ता शाश्वत,अक्षय और सबमे व्यापक है ,वह सदा एकरस और शांतिस्वरूप है ।
हरिः ॐ तत् सत !
- डा0 दयानन्द शुक्ल
सचिव, वानप्रस्थ क्लब, लखीमपुर
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