स्वार्थ और परमार्थ

                 गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है - " सुर नर मुनि सब कै यह रीती, स्वारथ लागि करहि सब प्रीती " यानी कि देवता, मनुष्य और मुनि सभी अपने हित लाभ के लिए ही प्रेम का प्रदर्शन करते है । सांसारिक व्यवहार में प्रायः ऐसा ही देखा जाता है  इसीलिये स्वार्थी को मतलबी कहा जाता है । मतलबी व्यक्ति को समाज में हेय दृष्टि से देखा जाता है अतः स्वार्थ शब्द के प्रचलित अर्थ और मूलार्थ के भेद को समझना आवश्यक है । इस लेख के माध्यम से स्वार्थ और परमार्थ शब्दों के वास्तविक भाव को प्रकाशित करने का एक लघु प्रयास है,आशा हैकि सुधी पाठक लाभान्वित होंगे ।
               व्यवहार में जो भी चेष्टाएँ  हमारे द्वारा होती है या की जाती है वे सब मन की सन्तुष्टि के लिए की जाती है ।वास्तव में मन जो चाहता है वही हम करते है ,मन की गति असीमित है वह नियंत्रित होती है बुद्धि से,बुद्धि इंद्रियोद्वारा बिषयों को ग्रहण करने के बाद मन के संकल्प विकल्प का निश्चयात्मक निर्णय करती है ।बुद्धि भी स्वयं अपना कार्य करने में समर्थ नही है ,यह सामर्थ्य उसे विवेकरूपी चेतना से प्राप्त होती है ।अर्थात् शरीर की भाँति बुद्धि भी प्रकृति का अंग होने से जड़ है अस्तु वह भी परिवर्तनशील और नाशवान है इसप्रकार स्पष्ट है कि बुद्धि भी ' मै ' नही । जब स्थूल शरीर बुद्धि पर्यन्त 'मै' नही फिर इसे '  स्व ' की संज्ञा कैसे दी जा सकती है ।स्व+अर्थ से स्वार्थ शब्द की निष्पत्ति हुई है । व्यवहार में स्वार्थ शब्द का प्रयोग अपने स्थूल शरीर और उससे जुड़े समस्त आयामों के निमित्त से ही किया जाता है । इसीकारण स्वार्थ और व्यवहार एक दूसरे के पर्याय हो गये और व्यवहार स्वार्थ हो गया ।
         व्यवहार के अंतर्गत बोलना, सुनना, खानापीना,सूंघना, चलनाफिरना, लेनादेना, पढ़नापढ़ाना, आदि अगणित कार्य आते है ,वे सभी शरीर के माध्यम से ही होते है ।प्रत्यक्ष प्रमाण से यह स्वयं सिद्ध है कि समस्त व्यवहार परिवर्तनशील और नश्वर है । व्यवहार तो कार्य रूप है, कारणरूप नही और कारण के बिना कार्य का अस्तित्व सम्भव नही अस्तु यह मानना ही पड़ेगा कि व्यवहार का कोई न कोई कारण अवश्य है । सामान्यतः व्यवहार का कारण शरीर को माना जाता है परंतु शरीर प्राकृतिक रूप से जड़ होने के कारण कर्तापन की सामर्थ्य नही रखता और बिना चेतन के व्यवहार सम्भव नही ,इस संशय का निराकरण भगवान कृष्ण ने गीता के नवे अध्याय के दशवें श्लोक में किया है । कृष्ण अर्जुन से कहते है, हे अर्जुन ! मेरे सकाश से यह प्रकृति इस चराचर जगत की सृष्टि करती है और इसी हेतु से यह परिवर्तनशील है ।
"मय्याध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्
हेतुनानेन कौन्तेय ! जगतः द्विपरिवर्तते । " गीता  9/10
            इसप्रकार शरीर को कारण मानना बनता नहीं अतः निश्चित रूप से शरीर में छिपा हुआ चेतन जो इस शरीर का नियामक और संचालक है, स्वामी रूप से प्रतिक्षण साक्षी होकर व्यवहार के लिये इस शरीर का दास रूप में उपयोग करता है ।जैसे कोई अभिनेता अभिनय करते समय अपनी मूल पहचान भूलकर व्यवहार करता है और अभिनय समाप्त होते ही पुनः अपनी मूल प्रकृति के अनुसार व्यवहार करने लगता है उसीप्रकार यह  जीव भी संसार में संसारी व्यवहार अभिनय रूप  करता है क्योकि अज्ञानवश संसारी जीव अपने मूल परिचय को भुला हुआ है और जन्म जन्म के संस्कारवश शरीर को ही स्व समझ कर व्यवहार करता है ।
        जैसे ही गुरु कृपा से या स्वाध्याय साधना से मनुष्य को अपनी भूल या अज्ञानता का बोध हो जाता है, वह अपने 'मै' को अर्थात् स्व को जान जाता है ,उसी क्षण स्वार्थ परमार्थ में बदल जाता है । परम्+अर्थ से परमार्थ शब्द की निष्पत्ति होती है, परम का मतलब ऐसा तत्व जिसका कोई कारण न हो और जो सबका कारण है । जिससे जगत है और जो कण कण में है । अकर्ता एवम् सबका साक्षी है ,चेतन,सत् और आनन्द स्वरूप है,सर्वव्यापक,अनन्त और सूक्ष्मातिसूक्ष्म है । ऐसा तत्व एक और केवल एक ही है जिसे शास्त्रो ने ब्रह्म नाम दिया है । वेद कहता है -" अहम् ब्रह्मास्मि " यानी मै ब्रह्म हूँ ।विचार सागर ग्रन्थ का प्रारम्भ जिस दोहे से हुआ है वह इस पर्संग में बहुत महत्वपूर्ण है अस्तु उसे यहाँ  उधृत कर रहा हूँ- "जो सुख नित्य प्रकाश विभु सकल जगत आधार
मति न लखै जिहि मति लखै सो मै शुद्ध  अपार । "
अर्थात् जो सुखस्वरूप है, जो सदैव था, है और रहेगा, जो व्यापक यानी सर्वत्र और सबमे है, सम्पूर्ण जगत का अधिष्ठान है ,बुद्धि जिसको ग्रहण करने में समर्थ नही है, जो बुद्धि का भी प्रकाशक है, वह शुद्ध और असीमित तत्व ' मै ' हूँ । भगवान कृष्ण जब मै शब्द का प्रयोग करते है तब वे इसी तत्व का निदर्शन करते है ।
         उपरोक्त व्याख्या से यह स्पष्ट है कि स्व और परम् दोनों शब्द एक ही चेतन तत्व के बोधक है । स्व का प्रयोग व्यष्टिगत और परम् का प्रयोग समष्टिगत  होता है ।तात्विक दृष्टि से दोनों एक है, भेद मात्र औपाधिक है ।वेदान्त में 'तत्वमसि'  महावाक्य में इसी अभेदता को स्पष्ट किया गया है ।
            अर्थ शब्द हेतु या प्रयोजन को द्योतित करता है । जब स्व और परम् दोनों अभिन्न है तो उनका प्रयोजन भी अभिन्न ही होगा  और वह प्रयोजन है अज्ञानता की निवृत्ति क्योंकि दास को मालिक जानकर व्यवहार करना अज्ञानजन्य है ।ज्ञान की प्रक्रिया स्वयं से प्रारम्भ होती है अस्तु पहले स्व को जानना ही अधिक महत्वपूर्ण है ।इसप्रकार स्व का बोध ही स्वार्थ का निहितार्थ है ।प्रत्येक की मूल प्रवृत्ति स्व में रहने की होती है उसी में आनन्द की अनुभूति होती है। हमारे दुखो का कारण भी यही है कि हम 'पर' को अज्ञानवश स्व मान बैठे है । अवस्तु को वस्तु समझना ही अज्ञान है इसीलिये साधक में नित्यानित्य वस्तु विवेक की क्षमता होना आवश्यक बताया गया है ।स्वार्थ से ही परमार्थ सिद्ध होना सम्भव है । महावाक्य में 'तत्' 'त्वम्' और असि पदों के द्वारा यही तथ्य निरूपित किया गया है । तत् अर्थात् परम् और त्वम् अर्थात् स्व ,असि पद के द्वारा दोनों पूर्वोक्त पदों की एकता कही गयी है ।स्व तम  रूप है क्योंकि वह चित्त के मल और विच्छेप से ग्रस्त है जबकि परम् ,ज्योतिर्मय है इसलिए साधक कामना करता है कि -"तमसो मा जयतिर्गमय " ।
           परमार्थ मनुष्य का अभीष्ट है और स्वार्थ उसकी प्राप्ति का एक अनिवार्य माघ्यम ।अभीष्ट की प्राप्ति के अनंतर साधक "आत्मवत् सर्वभूतेषु" की दृष्टि प्राप्त कर लेता है और वह सुख दुःख समे कृत्वा लाभा लाभौ जया जयौ  की सम बुद्धि प्राप्त करता है । इस स्थिति में उससे कोई पाप या पूण्य नही होता तथा वह कर्म बन्धन से सर्वथा मुक्त होकर जन्म - मृत्यु से छूट जाता है  ।यही वास्तव में स्वार्थ है ।

डा0 दयानन्द शुक्ल
सचिव,वानप्रस्थ क्लब
लखीमपुर

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