ब्रह्मचर्य
हमारे जीवन में शब्द शक्ति का बड़ा महत्व है । वर्णनामर्थ संघानाम के अनुसार अर्थ शब्द के साथ साथ चलता है । कुछ शब्द देश, काल सन्दर्भ अथवा प्रसंग के अनुसार अपने मूलार्थ से भिन्न अर्थ भी द्योतित करते है ऐसे अर्थ को रूढ़ कहा जाता है । इस लेख का शीर्षक भी ऐसा ही एक शब्द है जो अपने मूलार्थ में कम रूढार्थ में अधिक प्रयोग किया जाता है ।इसका कारण यह है कि मूलार्थ के अनुसार व्यवहार में कठिनता । ब्रह्मचर्य एक गुण है,सामर्थ्य है,शक्ति है,अवस्थाविशेष है जिसको धारण करने वाला ब्रह्मचारी कहलाता है ।इसप्रकार ब्रह्मचारी को लक्षित करने वाले भाव को व्यक्त करने वाला शब्द ब्रह्मचर्य है ।अतः ब्रह्मचर्य भाव-अर्थ को समझने के लिए ब्रह्मचारी को समझना आवश्यक है । जैसे दुराचारी से तात्पर्य दुष्ट आचरण करने वाला, भृष्टाचारी से तात्पर्य भृष्ट या निन्दित आचरण करने वाला उसीप्रकार ब्रह्म +आचारी से ब्रह्मचारी का स्पष्टार्थ ब्रह्म को व्यवहार में प्रकट करने वाला या ब्रह्म में ही जीने वाला । यह ब्रह्मचारी का मूलार्थ है परन्तु वर्तमान में इस अर्थ को प्रकाशित करने वाले ब्रह्मचारी नगण्य ही है । जबकि ब्रह्मचारी शब्द को अपने नाम के आगे या पीछे जोड़कर स्वयं को तपस्वी, योगी आदि सिद्ध करने और समाज में सम्मानित स्थान या पद प्राप्त करने की इच्छा वाले लोगो की कोई कमी नही है । रूढ़ार्थ के अनुसार ब्रह्मचारी से तात्पर्य ऐसे व्यक्ति से लिया जाता है जिसने गृहस्थाश्रम में प्रवेश नही किया ,अपना परिवार नही बनाया या कहे कि जिसने विवाह नही किया ।मूलार्थ का त्याग वहीँ किया जाता है जहाँ मुख्यार्थ का बाध होता है ।यहां ब्रह्म विषयक अज्ञान और संसार से अनासक्ति ,इस मुख्यार्थ का बाध ही लक्ष्यार्थ के रूढ़ार्थ में परिवर्तित होने का कारण दिखाई पड़ता है ।गृहस्थ न होना भी आंशिक रूप से त्याग की कोटि में आता है इसीलिए सामीप्य सम्बन्ध से लक्षणा करके रूढ़ार्थ में ब्रह्मचारी शब्द का व्यवहार किया जा रहा है ।
काल क्रम से ब्रह्म विषयक ज्ञान लुप्त होता चला गया, यह ज्ञान वेदों का अभीष्ट उद्देश्य था । वेद व्यास महर्षि कृष्णद्वैपायन ने वेदांत के सार संग्रह के रूप में 'ब्रह्मसूत्र' में इसे पुनः प्रकाशित किया ।सातवीं शताब्दी में जगत गुरु आचार्य शंकर ( शंकराचार्य ) ने ' ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या ' के अपने मौलिक सिद्धांत की व्याख्या करके इस ज्ञान को सम्पूर्ण विश्व में स्थापित किया । अठारवीं शताब्दी के अंत में स्वामी विवेकानंद जी ने इसी ज्ञान का डिम डिम घोष करके पश्चिमी जगत को भारतीय मनीषा के समक्ष नतमस्तक कर दिया । वर्तमान समय में भी अध्यात्म ज्ञान की यह धारा किसी न किसी रूप में अनौपचारिक प्रयत्नों के फलस्वरूप अस्तित्व में है ।आइये अब यहाँ प्रसंग वस इस ब्रह्मज्ञान को सारसंक्षेप में समझने का प्रयत्न करें ।
श्रुति, स्म्रति, उपनिषद आदि वेदांत ग्रंथो में ब्रह्म को ज्ञानस्वरूप कहा गया है । ' अणोरणीयां महतोमहियां ' -कठोपनिषद जो सूक्ष्म से छोटा और बृहत से भी बड़ा है, जो अजर, अमर और इन्द्रियों की पहुँच से बाहर है, जिसका न आदि है न अंत है, जो स्वयं अपना साक्षी है, जो सत, चेतन और आनन्द स्वरूप है, व्यष्टि रूप में जो आत्मा और समष्टि रूप में ब्रह्म जिसकी उपाधि है वह सर्वकालिक सत्ता या तत्व ब्रह्म है ।श्रीमद्भगवतगीता में भगवान् कहते है - " नासतो विद्यतेभावो नाभावोविद्यते सतः " अर्थात् असत् का कही भाव या अस्तित्व नही है और और सत् का कही अभाव नहीं है । स्पष्ट है कि ब्रह्म व्यापक और सर्वत्र है । वह हमारे भीतर और बाहर है, शरीर की आंतरिक और वाह्य हर गतिविधि का वह साक्षी है ।कठोपनिषद में यम नचिकेता के ब्रह्म विषयक प्रश्न का उत्तर देते हुये कहते है -" नायमआत्मा प्रवचनेंन लब्भ्यो ,न मेधया न बहुना श्रुतेन" अर्थात् ब्रह्म को बुद्धि या उपदेश से नही जाना जा सकता है अस्तु अनिर्वचनीय है । सृष्टि क्रम निरूपण के प्रकरण में वेद कहता है - "एतस्मादात्मनः आकाशः सम्भूतः आकाशातवायुर वायोराग्निह अग्नेरापः .............." आत्मनः अर्थात ब्रह्म से सर्व प्रथम आकाश ,आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल और जलसे पृथ्वीऔर वनस्पति आदि सूक्ष्म से स्थूल सृष्टि हुई ।अभिप्राय यह है कि ब्रह्म ही व्यक्त जगत का मूल है । समस्त सांसारिक क्रियाओ का मूल भी ब्रह्म है क्योकि वही एकमात्र चेतनसत्ता है विशेषता यह है कि स्वयं अकर्ता है एकरस है,अविकारी है । जहाँ सुख है वहाँ दुःख भी अवश्य है ब्रह्म सुख -दुःख से परे आनन्द स्वरुप है । अध्यारोप एवं अपवाद से जो निष्प्रपंच सिद्ध हो जाता है तथा नेति नेति की शास्त्रीय प्रक्रिया से स्वयं के अतिरिक्त सबका निषेध कर देने के अनंतर जो ज्ञप्तिस्वरूप शेष बच जाता है ,वही ब्रह्म है ।
तात्विक दृष्टि से यह शरीर, इन्द्रियाँ (आँख ,कान,रसना, नाक,त्वचा,हाथ,पैर,मुख,गुदा ,उपस्थ )एवं अंतःकरण ( मन, बुद्धि,चित्त,अहंकार ) जहाँ जहाँ भी जाय वहाँ वहाँ केवल ब्रह्म का ही दर्शन करे और चिंतन मनन करके अपने व्यवहार में उस ब्रह्म को ही प्रकट करे, ऐसा आचरण ही ब्रह्माचरण कहलाता है । चूँकि ब्रह्म दृष्टि से सब कुछ ब्रह्म ही सिद्ध होता है अतः जिसकी दृष्टि में परायापन नही है ,द्वैत नष्ट हो गया है, एक मात्र ब्रह्म ही सर्वत्र अनुभव होता है वही वास्तव में ब्रह्मचारी है । अर्थात् ब्रह्मचारी वह है जो " आत्मवत् सर्वभूतेषु " के भाव के साथ जीवन जीता है ।ब्रह्चारी का यह व्यवहार वास्तव में ब्रह्मचर्य कहलाता है ।
ब्रह्मचर्य की उपलब्धि मात्र ज्ञान से सम्भव है, अज्ञान जन्य भ्रम के कारण सदा पास और साथ रहने वाली ब्रह्म चेतना का बोध नही होता । ज्ञान से उदभाषित होने पर समस्त औपाधिक भेद स्वतः समाप्त हो जाते है, नाम, रूप सम्बन्ध और लिंगादि भेद महत्व हीन हो जाते है, तात्विक दृष्टि से मिथ्या सिद्ध हो जाते है । ऐसी अवस्था में देहबुद्धि नष्ट हो जाती है और लिंगभेद की जड़ें कट जाती है, जिससे देह और लिंगभेद जन्य परस्पर आकर्षण नही रहता और फलस्वरूप आचरण में ब्रह्मचर्य का वर्षण होता है
ज्ञानिनां अग्रगण्य श्री हनुमान जी ब्रह्मचर्य धारण करने वाले एक अनुपम उदाहरण है , वह जो, बल, बुद्धि, विद्या के आगार है, समस्त क्लेशो के संहारक है, आठो प्रकार की सिद्धियों और नवो निधियों के दाता है, यह ब्रह्मचर्य का ही फल है । उनके आदर्श को समक्ष रख कर पवित्र भारत भूमि में समय समय पर अनेक महापुरषो ने अपने आचरण से ब्रह्मचर्य की गरिमा, महिमा और क्षमता को सिद्ध किया है । भगवान् परशुराम, भीष्मपितामह, शंकराचार्य,स्वामीरामतीर्थ, स्वामीविवेकानंद आदि ऐसे बहुत से नायको के जीवन से ब्रह्मचर्य केयथार्थ को समझा जा सकता है ।
हरिः ॐ तत्सत्
डा0 दयानन्द शुक्ल
सचिव ,वानप्रस्थ क्लब, लखीमपुर
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