आस्था और विधि

                             आस्था और विधि
               यह कोई कम आश्चर्य की बात नही है कि भारतवर्ष में श्री राम और श्री कृष्ण जैसे अवतारिक महापुरुषों की जन्म स्थली के विषय में भी जनमानस में मतभेद ही नही ,उस पर विवाद खड़ा करके समाज को विखण्डित करने,और राजनैतिक रोटियां सेकने का प्रयास केवल विधर्मी ही नही तो वे लोग भी कर रहे है जिनके घरो में उक्त महापुरुषों की नित्य पूजा-आरती की जाती है । ऐसे में यह विचार स्वाभाविक रूप से महत्वपूर्ण हो जाता है कि वास्तव में समाज को राष्ट्रीय एकता के सूत्र में मणिमाला की तरह पिरोने वाला तत्व कौन सा है । वह तत्व आस्था है यह बात सत्ता की प्राप्ति और उसे बनाये रखने की दिशा में जीवन जीने वालो को अच्छी प्रकार मालुम है ,इसीलिये उनका प्रयास सदैव समाज की आस्था को आघात पहुचाने, भ्रम का वातावरण उत्पन्न करने और अलगाव का विष बीज बोने का रहा है ।इतिहास गवाह है कि जितने भी परकीय आक्रमणकारी भारत में आये उन सभी ने समाज के परम्परागत विश्वासो, धर्मिकविश्वासो,और नैतिक आदर्शो  अर्थात मान्यताओ को परिवर्तित करने और नष्ट करने का प्रयास किया ।नालन्दा और तक्षशिला के प्राचीन विश्वविद्यालयों के पुस्तकालयों को भस्मीभूत किया जाना, इस तथ्य की पुष्ट करता है । आज हमे वेदों की मूल प्रतियां ब्रिटेन और जर्मनी से प्राप्त होती है, वेद गड़रियों के गीत है ऐसा भी पढ़ाया जाता है, आर्य भारत के मूल निवासी नही, मंदिरो और उनमे स्थापित देवमूर्तियों को तोड़ा जाना, धर्मांतरण, अश्पृश्यता, जातीय उच्च नीच,पर्दा प्रथा आदि आस्था ध्वंस के प्रयास का ही परिणाम है । परन्तु उनका प्रयास पूर्णरूपेण सफल नही हुआ और आज भी भारत का मूल बहुसंख्यक समाज अपने सनातन मूल्यों के प्रति आस्थावान है । आस्था की इस शक्ति के कारण ही भारतीय संस्कृति का गौरवपूर्ण अक्षुण प्रवाह सतत अस्तित्व में है ।इतना ही नही तो गर्व के साथ कहते भी है -" कुछ बात है कि हस्ती मिटती नही हमारी " ।
                आस्था शब्द संस्कृत के स्था धातु से निष्पन्न हुआ है जिसका अर्थ है ठहरना, स्थिरता  और व्यवहार में आस्था का अर्थ श्रद्धा, भरोसा ,सहारा आदि होता है । जब किसी व्यक्ति, पदार्थ,सम्बन्ध अथवा मूल्य के प्रति अंतःकरण में श्रद्धा-सम्मान का भाव स्थिर हो  जाता है या कहे कि ठहराव हो जाता है तो ऐसे भाव को आस्था कहते है अस्तु आस्था एक आंतरिक और संस्कार जन्य भाव है । आस्था तर्क वितर्क से परे का तत्व है । मानव की स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि वह अपने पूर्वजो और उनके जीवन मूल्यों को सम्मान के भाव से देखता है और श्रद्धापूर्वक उनका अनुसरण करता है ,कालक्रम से यह प्रवृत्ति ही आस्था कहलाती है । परम्पराओ का संवहन आस्था के कारण ही होता है । आस्था वाह्य सांसारिक विधि -निषेधों से प्रभावित नही होती, बल्कि जहां करणीय अकरणीय के विषय में उहापोह की स्थिति होती है वहाँ परम्परा का ही अनुगमन होता है । आस्था का सम्बन्ध आत्मा से होता है ,मन के संकल्प-विकल्प जब बुद्धि से किसी निश्चित निष्कर्ष पर नही पहुचते तो आत्मा की आवाज से कार्य होते देखा जाता है । कहा जाता है कि आत्मा की आवाज पर कार्य करने से कभी कोई पाप नही होता अर्थात् आस्था का अधिष्ठान आत्मा होने से यह निर्विकार और पावन भी है । आस्था एक स्वयं स्फूर्त तत्व है जो वाह्य विषयो से आसानी से प्रभावित नही होता, संस्कारजन्य होने के कारण स्थाई रूप से विद्यमान रहकर प्रवृत्ति- निवृत्ति का हेतु बनता है ।आस्था अर्जित नही की जाती है, बीज रूप में जन्म के साथ प्राप्त होती है और वातावरण एवम् परिवेश के साथ परिपक्व होती है ।
                विधि समाज जीवन को अनुशासित करने,उसे नियंत्रित करने और सत्ता को दीर्घजीवी बनाने की दृष्टि से मानवकृत एक व्यवस्था है जो मानव सभ्यता के विकास का अनिवार्य साधन है । अज्ञानता या स्वार्थवश विधि का उल्लंघन मानव प्रवृत्ति है ।सत्ता ऐसे लोगो को अपराधी मानकर उन्हें दण्डित भी करती है ।विधि के साथ ही निषेध भी रहता है । करणीय और अकरणीय का निर्धारण विधि और निषेध के द्वारा होता है ।विधि का सम्बन्ध वाह्य जगत से है इसका प्रवर्तन, सञ्चालन, संयमन भौतिक उपादेयता के आधार पर होता है । विधि विकारी है अर्थात देश काल परिस्थिति के अनुसार इसमें परिवर्तन, संशोधन, और संवर्धन होता रहता है  । विधि की गुणवत्ता समाज की बौद्धिक चेतना, और उसकी उदात्तता पर निर्भर करती है उदात्त और सात्विकी समाज उसकी श्रेष्ठ और मूल्यपरक विधि व्यवस्था का द्योतक है । अस्तु सामजिक एकता, सौहार्द, सहयोग और शान्ति के लिये विधि की महत्ता और उपादेयता निर्विवाद है ।
              आस्था और विधि यह दोनों समाज जीवन के ऐसे आधार भूत पहलू है जिनके सामन्जस्य से मनुष्य मानवता की ओर अग्रसर हो सकता है ।भारतीय मनीषा के अनुसार " ईशावास्यमिदं सर्वम्" इस संसार में "तेन त्यक्तेन भुजीथा " की जीवन विधा के द्वारा "शतम् वर्षाणि जीवति" की कामना की गयी है । मानवता ही मनुष्य जीवन का अभीस्ट है ,जिसकी उपलब्धिआस्तिकता के बिना सम्भव नही है । आस्तिकता का जन्म आस्था से होता है  और इसकी व्याप्ति सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में है । जगत का उद्भव और लय जिसमे होता है वह परमात्मा आस्था रूप ही है परन्तु उसकी अनुभूति के लिये साधन रूप विधि का अस्तित्व लोक में है । रामचरित मानस ( राम कथा ) को तुलसीदास जी ,विधि-निषेध रूप  कलि के पापो को धोने वाली कहा है - "विधि निषेध मय कलि मल हरनी" । विधि आस्था रूपी साध्य का साधन भी है ।यद्यपि आस्था और विधि दोनों की प्रकृति एक दूसरे से विपरीत है, एक शाश्वत है दूसरा अनित्य,एक स्थाई है दूसरा अस्थाई,परन्तु जैसे मल को मल दूर नही कर सकता ,मल को साफ करने के लिये निर्मल जल आवश्यक है उसीप्रकार नित्य तत्व का अनुसन्धान अनित्य माध्यम से किया जाता है ।
              "एकम् सत विप्राबहुधा बदन्ति" वाक्य विधि की उदारता है इससे आस्था को कभी आघात नही लगा परन्तु जब विधि स्वार्थ परक हुई तो वह भी मूल उद्देश्य से भटक गयी । वर्तमान में विधि का प्रयोग व्यावसायिक हो गया है इसी के परिणाम स्वरूप धार्मिक आस्था की आड़ लेकर अनेक लोग अपनी अपनी विधि से सन्त नाम को कलंकित कर रहे है और राष्ट्रिय एकता की सूत्र रूप आस्था को टुकड़े टुकड़े कर रहे है ।धार्मिक क्षेत्र में अपने नये नये सम्प्रदाय संचालित करने की स्पर्धा ने सत्य को गूढ़ तमस से आच्छादिक कर लिया है और सामान्यजन दिग्भ्रमित है ।भारतीय संस्कृति क प्राण ,ऐक्य का आधार हमारी सनातन आस्था संकट ग्रस्त है । इस दुरावस्था का सबसे अधिक लाभ राजनेता अपने अस्तित्व को बचाने और सत्ता प्राप्ति के लिये कर रहे है ।यह देश का दुर्भाग्य है कि जिस आस्था की शक्ति से हमे विश्वगुरु की प्रतिष्ठा प्राप्त थी वह आस्था कुंठित हो रही है । जो आस्था हमे भवसागर से पार होने के लिये हमे पूर्वजो ने पवित्र उत्तराधिकारी समझकर प्रदान की थी उसका दुरूपयोग हम देश को तोड़ने, वैमनस्य बढ़ाने,और सत्ता प्राप्ति के लिये कर रहे है ।इबादत और पूजा विधि आस्था को समृद्ध और मजबूत करने के बजाय लोगो को समूह में इकट्ठा करने और वाह्य आडम्बर बढ़ाने वाली हो गयी है इससे धार्मिक लीडरो  द्वारा आस्था का दोहन और सामाजिक सौहार्द का क्षय हो रहा है ।
              जिस आस्था के कारण हजारो वर्ष तक भारत विश्व का गुरु रहकर विश्व का मार्गदर्शन करता रहा  ,वह सर्वे भवन्तु सुखिनः की कामना, सङ्गच्छध्वम समबदध्वं का संकल्प, सर्वभूत हिते रताः की भावना और आत्मवत् सर्वभूतेषु की साधना आज लुप्त प्राय हो गयी है। सभ्यता के विकास में अंकगणित, बीजगणित, त्रिकोणमिति, खगोलिकी, प्रकाश की गति ,वैमानिकी, आयुर्वेद, संगीत और जीवनदर्शन, आदि प्रायः सभी क्षेत्रो में भारत अग्रणी रहा है । आज का समय विज्ञानं और तकनीक का समय है जिसमे भौतिकता आधात्मिकता पर भारी है । व्यक्ति लघुमार्ग पर चलकर अपना स्वार्थ सिद्ध करने में अपना कौशल और गौरव समझ रहा है ।तात्कालिक सुख के आगे भविष्य के प्रति लापरवाह हो रहा है । अतः हमे भारत के प्राचीन ज्ञान और विज्ञानं को पुनः प्रकाश में लाने के लिये विधि का आस्थापरक विकाश करना होगा । यही  भारत के स्वर्णिम भविष्य का मन्त्र है ।
हरिः ॐ तत्सत् ।
डा0 दयानन्द शुक्ल
सचिव, वानप्रस्थ क्लब, लखीमपुर

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