कर्ता कौन ?

                                         कर्ता कौन  ?
                        इस प्रश्न का सीधा और सहज उत्तर है कि जो भोक्ता  है, जो सुख-दुःख का अनु भव कर्ता है वही कर्ता है । अर्थात् जीव कर्ता हुआ परंतु हम तो चेतन आत्मा है  जो नित्य और अविकारी होने से अक्रिय है । अतः विचारणीय  है कि जगत के समस्त  व्यवहार कैसे होते है ? कार्यो का करता कौन है ? यह प्रश्न प्रायः हम सबके लिये जिग्यासा और रहस्य का विषय रहा है । अनुभव में तो यही आता है कि भोजन हम करते है, चलते फिरते हम है ,बोलते हम है,खेती, व्यपार,नोकरी आदि हम करते है, मकान ,सड़क,पुल,कारखाना आदि भी हम बनाते है परंतु हम स्वयं को न तो उत्पन्न कर पाते है और न ही नष्ट होने से बचा पाते है । इतना ही नहीं तो जन्म से लेकर मृत्यु के बीच होने वाले शारीरिक विकारो पर भी हम बेवस दिखाई देते है । कुरुक्षेत्र के रण क्षेत्र में अर्जुन को भी यही लगता था कि युद्ध में उसके द्वारा होने वाले नर संहार का पाप उसे लगेगा , और इसीकारण वह अपने स्वधर्म से विरत होने की ऒर प्रवृत्त हुआ । अर्जुन को स्वधर्म पर प्रवृत्त करने के लिये भगवान् कृष्ण ने तत्वज्ञान् का उपदेश करते हुये कहा -
                      "प्रकृतिः क्रियमानानि गुनैःकर्माणि सर्वशः
                       अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ।    "             श्रीमद्भगवतगीता   3/27
अर्थात्  सब प्रकार पर्कृति के गुणों द्वारा ही समस्त कर्म हो रहे है परंतु जिनका आत्मा अहंकार से विमूढ़ हो गया है ,वे बीच में ही 'मैं करता हूं' ऐसा मानते है ।
                     निष्कर्ष यह है की अग्यान रूप अंधकार जीव के हृदय रूपी गुहा में दृढ़ता से  स्थित हो रहा है की सब कुछ चेष्टारूप व्यापार हो तो रहा है परकृति के गुणो द्वारा मन बुद्धि शरीर और इन्द्रियों से, किन्तु बीच में ही कर्ता मान बैठता है यह जीवात्मा अपने को । भाव यह है की दूसरे के धर्मो व कर्मो को अपना मान बैठना ,यही अग्यान है इसकी निवृत्ति के बिना सत्य अनावृत नही हो सकता अर्थात् ग्यान रूप प्रकाश से ही उक्त प्रश्न का समाधान संभव है । अस्तु आइये इस विषय में कर्तापन के मूल कारण पर विचार करे ।
                     कर्ता-बुद्धि का मूल भेद-दृष्टि है,अर्थात् जब यह जीव अपने आत्मा को देश-कल से परिच्छिन्न कुछ और तथा अपने से भिन्न यावत् प्रपंच को कुछ और जानता है, तभी इसके अंदर कर्ता-बुद्धि उत्पन्न होती है । यदि इसने नानाविध विष्मरूप संसार में अपने आत्मा को सम रूप से स्थित जाना होता और सभी विकारो में एक निर्विकार तथा सभी विभक्त भावो में अविभक्त रूप से स्थित अपने आत्मस्वरूप को ही देखा होता तब कर्तापन का कोई अवसर कैसे प्राप्त हो सकता था । जिसपरकार विष्मरूप तरंग  के ऊँच नीच, छोटाई बडाई, उत्पत्ति नाश आदि विकार जल मे नही होते, जल तो सब अवस्थाओ में ज्यो का त्यों रहता है । जल दृष्टि वाले के लिए तरंगो के भेद अर्थहीन है । इसीप्रकार यदि यह अभेद दृष्टि परिपक्व हुई होती तो कर्तापन का कोई अवसर कदापि नही रह सकता था । अतः कर्तापन का मूल केवल भेद-सृष्टि है ।
                          इस भेद-सृष्टि का कारण परिच्छिन्नं-दृष्टि है, अर्थात् अपनेआत्मा को एक देशीय जानना । जब जीव अपने  को एक देशीय मानता है तभी अन्य को अपने से भिन्न करके जानता है । यदि इस जीव ने अपने आत्मा को व्यापक रूप से देश-कल-परिच्छेद रहित जाना होता तो इसे भेद रूप प्रपंच की प्रतीति न हुई होती । जैसे व्यापक समुद्र अपने में तरंगादि भेद को नही देखता अपितु जलरूप ही देखता है तथा व्यापक आकाश अपने में पृथवी, पर्वत, वृक्ष बस्ती आदि का भेद नही देखता अपितु आकाश रूप ही देखता है । इस परिच्छिन्नता के कारण ही मनुष्य मन, बुद्धि,देह और इन्द्रियों को आत्मा से भिन्न जानता है । जितने देश-काल में मन बुद्धि देह एवम् इन्द्रियों का निवास है, तभी तक उनके साथ इसका तादात्यमाध्यास रहता है और यह इनके धर्मो का धर्मी बन कर करता-भोक्ता हो जाता है । यदि अग्यान से इसने(जीव) अपने आत्मा को देश-काल से परिच्छिन्न न जाना होता, बल्कि समुद्र व् आकाश के समान सर्वदेश-काल में व्यापक जाना होता तो इसका मन, देह आदि के साथ तादात्म्य भी न होता और कर्ता- भोक्तापन भी न रहता । इससे स्पष्ट है की जीव का कर्तापन उसकी परिच्छिन्न-दृष्टि के कारण है ।
                         वास्तव में तो यह आत्मा देश, काल व् वस्तुकृत सभी परिच्छेदों तथा सजातीय,विजातीय एवम् स्वगत रूप सभी भेदो से नित्य ही मुक्त है । सब भेद व् परिच्छेद केवल मायारूप अवास्तविक ही है क्योंकि यदि ये वास्तविक होते तो ग्यान से इनकी निवृत्ति संभव न होती । यह .आत्मा सभी भेदो. और परिच्छेदों  से नित्य निर्लेप है और ये सब विकार केवल अग्यान सम्भूत हैं ।

                                                                                                                                                डा0 दयानंद शुक्ल , सचिव
                                                                                                                                               वानप्रस्थ क्लब लखीमपुर

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