बन्धन और मुक्ति


                              बंधन और मुक्ति
              आजादी सभी चाहते है, सदैव और सर्वत्र स्वतंत्र रहने की अभिलाषा जीव मात्र की नैषर्गिक चाह है । गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में लिखा है -" पराधीन सपनेहु सुख नाही " । इससे स्पष्ट है कि मनुष्य की वास्तविक चाहना ' सुख ' है और वह स्वाधीनता में निहित है । पराधीनता दुःख का हेतु है, बंधन पराधीनता का ही रूप है । पऱवसता बंधन को अधिक स्पष्ट करने वाला शब्द है, जब किसी कारण,अपनी इच्छा के अनुसार कार्य, व्यवहार या परिणाम सम्भव नही हो पाता तब वह कारण भी बंधनरूप होता है । आश्चर्य की बात तो यह है कि संसार के दुःख भोगने के लिये परवश मनुष्यो में कोई विरला ही इस परवसता से मुक्त होने के लिये प्रवृत्त होता दिखाई पड़ता है । यह जिज्ञासा ही बन्धन और मुक्ति के स्वरूप पर विचार चिंतन के लिये प्रेरित करती है ।सांसारिक सुख दुःख नित्य नही है, चाहना तो उस सुख की होती है जो सदैव, और सर्वत्र हो ।अर्थात् शाश्वत सुख की प्राप्ति और बन्धरूप (दुःख रूप) संसार की निवृत्ति का नाम मुक्ति है । मुक्ति को मोक्ष भी कहते है । मुक्ति की इच्छा करने वाले को मुमुक्षु कहते है । शाश्वत सुख की प्राप्ति और दुःख की आत्यन्तिक निवृत्ति सर्व सामान्य को ही वांक्षित है, इसलिये मुमुक्षु तो सभी है। प्रश्न है कि बन्धन क्या है और मुक्त किससे होना है  ?
         विचार करने से ज्ञात होता है कि जन्म और मरण में जीव की परवशता है ,इतना ही नही तो पुनः पुनः जन्म लेना और मरण को प्राप्त होना और जन्म-मरण का चक्र निरन्तर संचालित रहना ,यही दुःख है, यही बन्धन है, इस चक्र से बाहर निकलना ही मुक्ति है ।
         वस्तुतः जीव का जन्म-मरण अहंता-ममता रूप संसार के सम्बन्ध से है और संसार का सम्बन्ध शरीर के सम्बन्ध से है, इसका अनुभव सुषुप्ति अवस्था में होता है जब जीव का सम्बन्ध शरीर से छूट जाता है तब अहं-मम रूप संसार का भी लॉप हो जाता है ।इससे यह सिद्ध होता है कि देह -सम्बन्ध से ही संसार-सम्बन्ध है । देह-सम्बन्ध  का कारण जीव की परिच्छिन्न दृष्टि के कारण है जो भेद-दृष्टि रूप है । भेद दृष्टि अज्ञान जन्य है । वास्तव में यह जीव अपने स्वरूप के अज्ञान के कारण स्वयं को और संसार को भिन्न भिन्न देखता है, इस भेद दृष्टि के कारण अहंता-ममता द्वारा उसे सुख की इच्छा उतपन्न हो जाती है । जैसे कस्तूरी मृग सुगंध को वन में इधर उधर खोजता फिरता है उसीप्रकार जो स्वयं सुख का सागर है ,स्वस्वरूप के अज्ञान से सुख की इच्छा करता है । सारांश यह है कि परिच्छिन्न जीव भेददृष्टि से कर्ता बुद्धि धारकर अनुकूल और प्रतिकूल विषय पदार्थो में राग और द्वेष करके पूण्य और पाप का हेतु होता है । इसप्रकार अज्ञान के कारण सुख की इच्छा से कर्तत्व बुद्धि के बन्धन में फसा हुआ यह जीव राग-द्वेष द्वारा पूण्य-पाप के फल, सुख-दुःख के भोग के लिये देहरूपी कारागार में डाला जाता है । पुनः सुख की इच्छा से देह के द्वारा कर्म करता है और उनके फल भोग के लिये पुनः देह को प्राप्त होता है क्योंकि देह के बिना भोग सम्भव नही है । शरीर को इस लिये भोगायतन भी कहा गया है ।इसप्रकार शरीर से कर्म और कर्म से शरीर का एक अटल क्रम चल पड़ता है जिसका कभी अंत नही होता ।भगवान् श्रीकृष्ण नये नये शरीर प्राप्त करने की तुलना पुराने वस्त्र को त्याग कर नये वस्त्र धारण करने से करते है -
"वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानिग्रहनाति नरोपराणि
तथा शरीराणि विहायजीर्णानंयानिसन्याती नवानि देही  ।"
                                  श्रीमद्भगवतगीता  2/22
प्राणियो का जन्म मरण बन्धन रूप है इसे स्पष्ट करते हुये श्रीकृष्ण कहते है- ब्रह्मा के दिन प्रवेश काल में अव्यक्त रूप माया से ये सभी व्यक्त होते है और ब्रह्मा के रात्रि प्रवेश काल में उसी अव्यक्त माया में विलीन हो जाते है । हे पार्थ ! इसीप्रकार यह भूतसमुदाय (प्राणी ) बार बार व्यक्त होकर बरबस ब्रह्मा की रात्रिकाल में लीन होता है और दिन में उत्पन्न होता रहता है ।
" अव्यक्ताद्व्यक्तयः सरवाःप्रभवन्त्यहृगमे
    रात्र्यागमे प्रतीयन्ते तत्रैवावक्तयसंज्ञके ।
    भुत ग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते
    रात्र्यागमेअवसः पार्थ प्रभावत्यःरागमे ।  "8/18,19
            संसार में ऐसी कोई शक्ति नही है जो इस जो इस विवसता को काट सके सिवाय इसके कि वह आप ही उलट कर अपने स्वरूप की ओर आवे और ज्ञानाग्नि से कर्ताबुद्धि और भेद दृष्टि को भस्म कर देवे ।प्रकृति का यह नियम है कि जो कर्ता होता है वहीँ भोक्ता होता है । कर्मसंस्कार सदैव कर्ता बुद्धि के आश्रय रहते है ,इसलिये जबतक कर्ता बुद्धि मौजूद है ये कर्म संस्कार भोक्तृत्व के बन्धन में अवश्य डालेंगे ।वास्तव में कर्तृत्व रूप अहंकार ही बन्धन का हेतु है क्योकि 'अहं कर्ता-बुद्धि' के अभिमान से जो भी कुछ स्फुरण व चेष्टा, शुभ अथवा अशुभ होती है वह तो समुद्र में तरंगो के समान उत्तरकाल में लीन हो जाती है परन्तु वे बीज रूप में अपने संस्कार अंतःकरण में छोड़ जाती है ,जहाँ कर्तृत्व अहंकार का निवास है । इसी अहंकार के आश्रय वे संस्कार सूक्ष्म रूप से रहते है, फिर वे संस्कार अपने समय पर स्थूल रूप में उसीप्रकार फलोन्मुख हो जाते है जैसे भूमि में छिपे हुये नाना प्रकार के बीज वर्षा काल में फूट निकलते है । इसीप्रकार वे कर्मसंस्कार  फ्लोन्मुख होकर बरबस कर्ता को जन्म मरण के बन्धन में लाते है ।
            उपरोक्त व्याख्या से बन्धन का स्वरूप स्पष्ट  होता है कि स्वस्वरूप से च्युत होने के कारण शरीर के धर्मो को स्वधर्म समझ कर ,अकर्ता परमानन्द और चेतन ,कर्ताबुद्धि और भेद दृष्टि धारण कर लेता है इस बन्धन रूप अज्ञान से छूटने को मुक्ति या मोक्ष कहते है ।अस्तु  बंधन को तोड़ने का नाम मुक्ति है और चूँकि बन्धन अज्ञानजन्य है इसलिये मुक्ति का एकमात्र साधन ज्ञान है । अज्ञान अंधकार रूप है जिसमे कर्म रूप ठोकरे लगती है । ज्ञान प्रकाश रूप है ,प्रकाश होने पर ठोकरे नही लगती । चूँकि कर्म अज्ञानजन्य है फिर वह अज्ञानरूप अंधकार को कैसे दूर कर सकता है ? इसके आलावा कर्मजनित जो कुछ भी होगा वह नाशवान होने से स्थाई नही होगा ।इसलिये ज्ञान के बिना केवल कर्म से मुक्ति ख-पुष्प के समान है ।
हरिः ॐ तत्सत् ।
डा0 दयानन्द शुक्ल

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