ज्ञान और अज्ञान

                               ज्ञान और अज्ञान
           विद्यावान - विद्वान और ज्ञानवान - ज्ञानी कहलाता है । विद्वान का विलोम मूढ़ और ज्ञानी का विलोम अज्ञानी कहा जाता है ।इसका तात्पर्य यही है कि विद्या और ज्ञान एक दूसरे के पर्याय नही है ,प्राचीनकाल में विद्या की 14 कोटियां मानी गयी थी जिनके अंतर्गत समस्त सांसारिक व्यवहार,विषय,पदार्थ और जीवन के रहस्यों आदि का बोध समाहित था ,वर्तमान में विद्या के आयाम बढ़े है । ज्ञान सनातनकाल से अद्यतन एक है और वह है सत्य-शाश्वत तत्व का बोध । छांदयोग्योपनिषद् में कथा आती है कि ऋषि अपने पुत्र को गुरुकुल भेजता है, वह पुत्र चौदहों विद्याओ में निषणात होकर जब वापस घर आता है तो पिता प्रश्न करता है -क्या तुमने सबकुछ जानलिया ?  पुत्र - हाँ, मैंने समस्त विद्यायें प्राप्त कर ली है । ऋषि - अच्छा एक लोटा (पानी रखने का पात्र) लाओ ? ,इसमे जल भरो ।, एक नमक का टुकड़ा लाओ ,नमक के टुकड़े को लोटे में डालो, पुत्र ने ऋषि पिता की आज्ञानुसार कार्य किया । थोड़ीदेर बाद पुनः ऋषि ने पुत्र से कहा - तुमने जो  नमक का टुकड़ा लोटे में रखा था उसे निकाल कर लाओ । पुत्र ने लोटे में हाथ डाला और नमक के टुकड़े को ढूढ़ा । पुत्र ने उत्तर दिया - इसमें नमक नही है । पिता ने कहा अच्छा ,लोटे में डाली गयी हाथ की ऊँगली को जिभ्या पर रखो और बताओ कि नमक है अथवा नही । पुत्र ने वैसा ही किया और उत्तर दिया - हाँ इसमें नमक है । तब पिता ने कहा फिर तुमने पहले क्यों कहा कि लोटे में नमक नही है ? पुत्र निरुत्तर हो गया । तब पिता ने कहा तुम पुनः गुरुकुल वापस जाओ ,अभी तुमने सबकुछ नही जाना है । तुमने केवल विद्या अर्जित की है ज्ञान प्राप्त नही किया है । पुत्र ने जिज्ञासा की - ज्ञान क्या है ? पिता  - जिसके प्राप्त होने पर कुछ जानना शेष नही रहता, वह ज्ञान है । ज्ञान न तो इन्द्रियजन्य है और न ही इन्द्रियों का विषय है ।अर्थात निष्कर्ष यही है कि जो कुछ भी सांसारिकविषय ,पदार्थ है वे तो बुद्धि ग्राह्य होने से विद्या के द्वारा बोधगम्य होते हैं परन्तु जो अव्यक्त तत्व इन्द्रियातीत है उसका बोध ज्ञान है । इंद्रियातीतबोध वास्तव में अनुभव जन्य होता है जो आत्मस्वरूप होता है । आत्मस्वरूप समष्टिभाव में परमात्मस्वरूप हो जाता है  । इसीलिये परमात्मा को ज्ञानस्वरूप भी कहा गया है ।
         ज्ञान का सम्बन्ध विद्वता से केवल इतना है कि विद्वान साधक तत्व मीमांसा और उसकी व्याख्या आदि में अधिक सक्षम हो जाता है ।यह आवश्यक नही कि विद्वान ज्ञानी भी हो । ज्ञानियो के मत के अनुसार विद्वता ज्ञान मार्ग में बाधा रूप है क्योकि विद्वान अपनी प्रवृत्ति के कारण प्रत्येक वस्तु,पदार्थ अथवा तत्व को तर्क की कसौटी पर परखे बिना स्वीकार नही कर पाता । वास्तविकता यही है कि तर्क की सीमा सांसारिक विषयो तक ही सीमित है । प्रत्यक्ष, अनुमान,उपमान आदि प्रमाणों से केवल सांसारिक पदार्थो का ही बोध होता है ,जबकि ज्ञान का विषय वह परमतत्व है जो शाश्वत, ज्ञानश्वरूप और सच्चिदानंद है  । इस अव्यक्त तत्व का साक्षात्कार प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सम्भव नही है । वेद कहता है कि इसी अव्यक्त  तत्व से यह व्यक्त पंचभौतिक शरीर और जगत हुआ ।  महात्मा विदुर धृतराष्ट्र से कहते है -
"नवद्वारमिदम वेश्म त्रिस्थूणम पंचसाक्षिकम
क्षेत्रज्ञाधिष्ठितम विद्वान यो वेद स परः कविः ।" विदुरनीति 1/105
अर्थात् जो नौ द्वारो वाले त्रिगुण के खंभों और पंच साक्षियों  वाले आत्मा के निवास स्थान इस शरीर रूपी घर के रहस्य को भली प्रकार जानता है, वही ज्ञानी है ।

जीवन का रहस्य भी अव्यक्त में समाहित है जिसके बोध के बिना जीव स्वस्वरूप से अनभिज्ञ है । परिणाम स्वरूप वह जो है उसे उस रूप में नही देखता या कहे कि नही जानता ,यही अज्ञान है ।वस्तु को अवस्तुरूप में देखना ही अज्ञान है । अज्ञान को अंधकार और ज्ञान को प्रकाशरूप कहा गया है अर्थात  जैसे प्रकाश से अंधकार नष्ट हो जाता है उसीप्रकार ज्ञान से अज्ञान की निवृत्ति होती है । वह ज्ञान श्रद्धालु साधक का विद्वान साधक की अपेक्षा शीघ्र सिद्ध होता है । कबीर, मलूकदास, तुकाराम, रविदास, स्वामी रामकृष्ण जैसे अनेक महापुरुष हुये जो विद्वान न होते हुये भी ज्ञान की आभा से ज्ञानी कहलाये और लोक में पूज्य हुये जबकि शंकराचार्य, स्वामी विवेवकानंद, तुलसीदास जैसे विद्वान ज्ञानी महापुरष अपेक्षाकृत कम हुये । तुलसीदास जी ज्ञान के लिये कहा है-" गुरु बिन होइ न ज्ञान, " तथा " ज्ञान कि होइ विराग बिनु " अर्थात ज्ञान की सिद्धि के लिये गुरु और वैराग्य का होना सर्वाधिक आवश्यक है । सांसारिक गुरु से केवल विद्या प्राप्त होती है अस्तु ज्ञान के लिये ऐसे गुरु की आवश्यकता होती है जो संसार में रहते हुये भी असंसारी हो तथा निवृत्ति मार्ग से ध्येय को प्राप्त कर चुका हो अर्थात अनासक्त ज्ञानी पुरुष ही ज्ञान प्राप्त करने के लिए समर्थ गुरु है । यद्यपि ऐसे पुरुष का मिलना अति कठिन है परंतु असम्भव नही है । प्रत्येक काल में ऐसे गुरु होते रहे है इन्हें सदगुरु कहा जाता है ।भारतवर्ष में वशिष्ठ, विश्वामित्र, याज्ञवल्क्य, अष्टावक्र श्रीराम, श्रीकृष्ण, श्रीकृष्णद्वैपायन, शंकराचार्य, स्वामी अखंडानंद और स्वामी शिवानंद आदि अनेक ऐसे सदगुरू हुये है ।
               अब ज्ञान के स्वरुप के सम्बन्ध में कुछ विचार करना समीचीन होगा अस्तु सर्वप्रथम हमे ज्ञान की उपादेयता और उसके साधन के सम्बन्ध में स्पष्ट होना चाहिये । ज्ञान साधन और साध्य दोनों है । साधन के रूप में यह मोक्ष का हेतु है और साध्य के रूप में केवल ज्ञान ही की सत्ता है ,ज्ञान से भिन्न जो कुछ भी है वह आभास मात्र है । व्यक्त का उदगम अव्यक्त ज्ञानस्वरूप है  । वेद का उदघोष है  -
  1 " तदयथेह कर्मचितो लोकः क्षीयते एवमेवामुत्र पुण्यचितो लोकः क्षीयते ।"
   2 " ऋते ज्ञानान्न मुक्तिः "
   3 " ज्ञानादेव तु कैवल्यम् "
   4 "नान्यः पन्था विद्यतेअयनाय "
अर्थ - जैसे यह कर्म रचित यह लोक क्षय को प्राप्त होता है उसीप्रकार कर्म रचित स्वर्गादि लोक भी नाश को प्राप्त होते है ।
    2  ज्ञान के बिना मुक्ति नही है ।
    3  केवल ज्ञान से ही मोक्ष सम्भव है ।
    4  मुक्ति का और कोई मार्ग नही है ।
इसप्रकार ज्ञान  की उपादेयता बताने वाले उपरोक्त श्रुति वाक्यो से स्पष्ट है कि बिना ज्ञान के केवल कर्म से मोक्ष सम्भव नही है ,मोक्ष के लिये ज्ञान की अपरिहार्यता है । वेद और शास्त्रो  का सिद्धान्त है  कि माया रूप अज्ञान ही संसार का जनक है । अज्ञानजन्य कार्य का नाश केवल और केवल ज्ञान से सम्भव है । जैसे मध्यम प्रकाश में रस्सी में सर्प का बोध भ्रम रूप अज्ञान के कारण से होता है, यह अज्ञान अंधकार दोष के कारण से है ,अतः दीपक आदि प्रकाशस्रोत के साधन से अंधकार रूप अज्ञान की निवृत्ति हो जाने पर रस्सीरूप ज्ञान होता है इस सर्प रूप अज्ञान की निवृत्ति की निवृत्ति घंटा, लाठी आदि किसी अन्य साधन से किसी प्रकार सम्भव नही क्योकि सर्प का कभी वहां भाव या अभाव था ही नही ,न तो प्रतीतिकाल में और न उसके पश्चात ।इसीप्रकार संसार वास्तव में उतपन्न नही हुआ,अपनी उत्पत्ति से पहले भी यह नही था,और अपने नाश के पश्चात भी इसे नही रहना है, केवल मध्य में ही भ्रम रूप इसकी प्रतीति है । गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुये कहते है  -
   " अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत ।
      अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना।  ।।     2/28
अर्थात् सभी प्राणी अपनी उत्पत्ति से पूर्व अपना कोई आकार रूप नही रखते,और अपने नाश के बाद भी अपना कोई आकार रूप नही रखते केवल मध्य में ही यह आकार रूप में व्यक्त है, इसलिए हे भारत ! इनके लिये रुदन कैसा ?
इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जिसकी आदि और अंत में कोई अपनी सत्ता नही है उसकी मध्य में सत्ता रस्सी में सर्प की भाँति केवल प्रतीति मात्र है यह प्रतीति अज्ञान जन्य है । जैसे ही विवेक से इस सत्य का बोध होता है, प्रतीति रूप अज्ञान की निवृत्ति हो जाती है और ज्ञानरूप प्रकाश में जगत में ब्रह्म रूप का साक्षात्कार होता है । यही ज्ञान की भूमिका है और यही ज्ञान है । इसी अवस्था में गोस्वामी तुलसीदास जी बोल उठते है -" सियाराम मय सब जग जानी, करौ प्रणाम जोरि जुग पानी  " ।
          सारांश रूप में कहा जा सकता है कि जैसे सुषुप्ति में स्वप्न का संसार जाग्रत अवस्था में असत्य सिद्ध हो जाता है उसीप्रकार अज्ञान जन्य संसार ज्ञान के प्रकाश से निःसार और मिथ्या सिद्ध हो जाता है । संसार सुख-दुःख मय है वास्तविकता तो यह है कि प्रत्येक भोग का आदि सुखदायी परन्तु अन्त दुखदाई ही है । इसलिये अज्ञान दुःख और ज्ञान सुख का हेतु है ,इतना ही नही तो ज्ञान शाश्वत सुख यानी आनन्द स्वरूप है क्योकि कारण-कार्य के सिद्धांत के अनुसार। कार्य कारण से भिन्न नही हो सकता ।गीता में भगवान कहते है -
   "या निशा सर्वभूतानाम् तस्य जागर्ति संयमी ।
     यस्यां जागर्ति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ।।  5/69
अर्थात् जिस शुद्ध परमात्मस्वरूप की ओर से सभी भुत प्राणी सोये हुये है यानी अचेत है उस परमात्मस्वरूप में ज्ञानी सचेत है यानी जाग रहा है तथा जिस जन्म-मरण रूप संसार में सभी प्राणी जाग रहे है अर्थात माया मोह में पड़े हुए है  उसकी ओर से तत्व वेत्ता ज्ञानी अचेत है ।
हरिः ॐ तत्सत्
डा0 दयानन्द शुक्ल

   

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