सत्संग और सदाचार
सत्संग और सदाचार
" सत्संगति मुद मंगल मूला जोइ सिद्धि सो सब साधन फूला "
गोस्वामी तुलसीदास जी की इस अर्धाली में सत्संगति का व्यवहारिक भौतिक जीवन में उपादेयता और उसकी महिमा का वर्णन किया गया है । सन्त तुलसी कहते हैं कि सबप्रकार के मंगल या कल्याण का मूल सत्संगति है, इसके सिद्ध होने पर समस्त साधन सुलभ हो जाते है ।मार्ग का ज्ञान हो और साधन भी उपलब्ध हो तो गन्तव्य की प्राप्ति सहज हो जाती है । यहां मुद-मंगल गन्तव्य (लक्ष्य) है । मुद अर्थात् आनन्द और मंगल अर्थात् कल्याण का मूल यानी आधार सत्संगति किसप्रकार है यही विमर्श यहां अभीष्ट है ।सत्संगति अर्थात सत्संग करना, अतः सत्संगति से पूर्व सत्संग का बोध आवश्यक है ,बोधपूर्वक व्यवहार ही सार्थक होता है । गोस्वामी जी स्वयं कहते है - " जाने बिनु न होइ परतीती,बिनु पतीति होइ नहि प्रीती " ।
'सत् ' का संग या साथ सत्संग कहलाता है और उसका व्यवहार मे प्रकट होना सदाचार कहलाता है ।सत् वह है जो शाश्वत, सर्वाधिष्ठान और आनन्द स्वरूप है अतः वास्तव में 'स्व ' में आनन्द से पूर्ण दशा में सहज रूप से होने वाले कर्म का नाम ही सदाचार है । व्यवहार में इन अर्थो के अनुरूप सत्संग और सदाचार इन दोनों शब्दों का प्रयोग प्रायः दिखाई नही पड़ता है । साधु, सन्तों और धार्मिक कथा वार्ता से जुड़ना ही सामान्यतः सत्संग का रूढार्थ हो गया है और अच्छे आचरण को सदाचार कहा जाता है ।किस आचरण को अच्छा और किसे बुरा कहा जाय यह भी समाज सापेक्ष है अस्तु यह अर्थ अभीष्ट नही कहा जा सकता है । मूलार्थ में शब्दों के प्रयोग न होने का कारण मूलार्थ का अज्ञान ही है ।
सत्संग की उपादेयता की दृष्टि से निम्न अर्धाली प्रायः उदधृत की जाती है - " सठ सुधरहिं सत्संगति पाई,पारस परस कुधातु सुहाई ।" अर्थात् पारस के स्पर्श से जैसे लोहा ,स्वर्ण बन जाता है उसीप्रकार सत्संगति पाकर दुष्टजन सुधर जाते है । वास्तव में व्यक्ति के आचरण से ही उसका सज्जन अथवा दुष्ट होना जाना जाता है ,जो सभी को सुख देने वाले कार्य करता है वह सज्जन ,और दुःख देने वाला दुर्जन कहलाता है ।इस दृष्टि से सज्जन के आचरण को सदाचार और दुर्जन के आचरण को ,व्यवहार जगत में दुराचार कहते है ।समझना यह है कि सत्संग से आचरण कैसे बदलता है ,तो उसके लिये गोस्वामी जी ने पारस पत्थर और लौह के संग का उदाहरण दिया है, यह दोनों पदार्थ प्रकृति से ठोस है इसलिये उनमे कोई रासायनिक क्रिया नही होती परन्तु संग के परिणाम स्वरूप लौहखण्ड के परमाणु स्वर्णपरमाणुओ में परिवर्तित हो जाते है अर्थात लौह अपना स्वभाव त्याग कर स्वर्ण का स्वभाव धारण कर लेता है । इस परिणामी अवस्था में लौह के जंग,कठोरता एवम् कालिमा आदि गुण धर्म नही रहते, उनके स्थान पर तेज,मृदुता और सदा एकरूप रहने आदि की गुण धर्मता आ जाती है ,जिसके कारण लौह स्वर्ण के रूप में मूल्यवान हो जाता है और लोक का कंठाहार बनता है । उसीप्रकार सत् का संग असत् को सत् में परिवर्तित कर देता है , व्यक्ति का वाह्य व्यवहार या अभिव्यक्ति उसके भीतर के अव्यक्त और सूक्ष्म भाव का निदर्शन है , जब अंतःकरण अज्ञान से आच्छादित रहता है तो विवेक जाग्रत नही रहता और परिणाम स्वरूप वह करणीय और अकरणीय में भेद नहो कर पाता जिसके कारण उसका व्यवहार स्वच्छंद हो जाता है और दुसरो के लिये अकारण दुःख का हेतु बन जाता है । ऐसे व्यक्ति को समाज में सठ कहा जाता है ।सत् अर्थात् ज्ञान के संग से अज्ञान रूप असत् (अंतःकरण का मल और विक्षेप) दूर हो जाता है और व्यक्ति के अंतःकरण के चारो सूक्ष्म अंग -मन ,बुद्धि, चित्त अहंकार शुद्ध और पवित्र हो जाते है । परिणामी परिवर्तन के रूप में उसका आचरण अनुकरणीय और कल्याणप्रद हो जाता है ।
उपरोक्त आलोक में विचार करने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि सत्संग करने की वस्तु या विषय नही है, वास्तव में सत्संग तो प्रत्येक क्षण ,सर्वत्र और समस्त प्राणियो में स्वतः हो रहा है । सबका अधिष्ठान सत् ही है वही साक्षी होकर सर्वकाल में सबका प्रेरक ,संचालक,नियंता ,कारण और कार्य रूप में सत्तावान हो रहा है । श्रीमद् भगवतगीता कहती है - " नासतो विद्यते भावो " अर्थात् सत् का कही और कभी अभाव नही है ।और " नाभावो विद्यते सतः" अर्थात् असत् का कही भाव यानी कि सत्ता नही है । आगे भगवान् कृष्ण कहते है -
" अविनाशि तू तद्विद्धि एनसर्वमिदं ततम् ।
विनाशमव्ययस्यास्य च कश्चिकर्तुमर्हति ।। 2/17
अविनाशी तो तू उसको जानो जिससे यह सम्पूर्ण जगत-दृश्यवस्तु व्याप्त है, इस अविनाशी का विनाश करने में कोई समर्थ नही है ।
जिसका कभी क्षय और विनाश नही है उसी की संज्ञा "सत्" है और वह तो सर्व देश और काल में हमारे साथ ही है ,फिर उसका साथ पाने के लिये किसी देश(स्थान) या व्यक्ति के पास जाना किसी भी प्रकार से सार्थक नही है । परन्तु व्यवहार में सत्संग मण्डल,सत्संग समितियां, देवालय, कथावाचक, साधु-महात्मा और सन्त नामधारी सत्संग करने का आग्रह करते है ,इनके आवाहन पर बहुत बड़ी संख्या में लोग सत्संग करने जाते भी है ।परन्तु विडम्बना यह है कि ऐसे सत्संग से न तो सदाचरण बढ़ा और न ही समृद्धि ।ऐसे सत्संग केवल लोगो में अंतर्निहित मुक्ति की स्वाभाविक प्रवृत्ति का अनुचित दोहन का माध्यम ही अधिकांश में सिद्ध हुये है । इससे हमारा तात्पर्य यह नही है कि सत्संग करना अच्छा नही है ,नैतिक मानदण्डों की कसौटी पर खरे और निष्प्रह सेवा पर आधारित आयोजन समाज के परिष्कार में सहायक है तथा हमारी वृत्ति को स्टोमुखी बनाने तथा निवृत्ति की और प्रेरित करते है अस्तु उनकी सामाजिक उपादेयता है परन्तु सत् को जाने बिना सत्संग निर्रथक ही है । सत् ज्ञानस्वरूप है अतः अज्ञान की निवृत्ति ही वास्तविक सत्संग है ।अज्ञान की निवृत्ति सत्य के बोध से होती है और बोध अनिर्वचनीय है केवल अनुभूतिजन्य है ।संसार प्रवृत्ति परक है अस्तु निवृत्ति मार्ग ही एक मात्र सत्संग की उपलब्धि का आत्यंतिक और निश्चित मार्ग है । इस मार्ग पर पर गन्तव्य तक पहुचने में सतगुरु अवश्यमेव सहायक है परन्तु सतगुरु को पाना अपने पुरुषार्थ पर कम ,प्रारब्ध पर अधिक निर्भर करता है ।सतगुरु वही हो सकता है जो स्वयं सत् का अनुभव कर चूका हो और ,जिसका भौतिक जीवन सत्संगमय हो ।अर्थात जिसकी चेष्टाओं में सत् की अभिव्यक्ति होती हो ।
सदाचार भी वास्तव में व्यवहार में, निर्गुण, निराकार और शाश्वत तत्व -सत् की सगुण और साकार अभिव्यक्ति है । जब सत्संग सिद्ध हो जाता है तो वह सदाचार के रूप में प्रकट होता है ।एकप्रकार से सदाचार स्थूल सत्य है । सत् ही सत्य है तथा सत्य ही शिव है अस्तु सदाचार कल्याणप्रद है ।यही सदाचार की महिमा है ।सदाचारी मनुष्य सत्संग का मूर्तिमान अभिव्यक्तीकरण है ।सदाचारी सत्संग करता नही है वह देश काल निरपेक्ष सत्संग में रहता है ।सत्संग के बोध से आत्मतृप्ति होती है,आत्मतृप्ति के बिना सदाचार का जन्म हो ही नही सकता ।आत्मतृप्ति के अभाव में विषय सुख के प्रति आकर्षण रहेगा, विषयाकर्षण के रहते विषय का त्याग सदाचार नही है ।सत्संग की अनुभूति अन्दर होश की परिपूर्णता है । जब होश की परिपूर्णता में कर्म होता है तो सार्थक कर्म स्वतः होने लगता है ।यही सदाचार है, चेतना की यह पूर्ण जाग्रति है, इस समय शुभ का जन्म और अशुभ का नाश होता है । अतः अधिक से अधिक सत्संग में रहना श्रेयस्कर है । चेतना का जागना ही मोक्ष है, अमरत्व है, स्वाधीनता है, आनन्द है, सत्य की उपलब्धि है ।चेतना का सोना ही मृत्यु है, स्वप्न है, असत्य है, जीवन की पराजय है ।अस्तु जागरण ही सत्संग है ।
हरिः ॐ तत्सत्
डा0 दयानन्द शुक्ल
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