प्रेम और राग
प्रेम और राग
" रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़ो चटकाय
टूटे ते फिर ना जुड़ै जुड़ै गाँठ परि जाय ।"
लोकव्यवहार से प्राप्त अनुभवजन्य सिद्धांतो को अपने दोहो के माध्यम से संसार के कल्याण के लिये लिखे गये इस दोहे में 'प्रेम' के विषय में कहा गया है कि प्रेमरूपी धागे को तोडिये मत,क्योकि यह धागा टूट जाने पर दुबारा नही जुड़ सकता,और यदि किसीप्रकार जुड़ भी जाय तो उसमे गाठ अवश्यमेव पड़ जाती है । अर्थात् धागे का मूल स्वरूप नही रहता । यह बात प्रेम शब्द के मूलार्थ से हट कर है क्योकि प्रेम मानवजनित कोई पदार्थ नही है इसलिये उसके तोड़ने या जोड़ने का प्रश्न ही पैदा नही होता है । प्रेम प्रकृति का व्यापक और स्वयम्भू अव्यक्त तत्व है ,जिसने इस तत्व का साक्षात्कार कर लिया वह फिर प्रेमसागर में आनंदविभोर होकर उसी में डूबा रहता है । कबीर दास जी कहते है -" पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ पण्डित भया न कोय, ढाई आखर प्रेम के पढ़ै सो पण्डित होय ।"अर्थात् बड़े बड़े ग्रन्थ पढ़ने वाले विद्वान मृत्यु को प्राप्त होगये ,और जिसने ढाई अक्षरो वाले प्रेम को पढ़ लिया यानी जान लिया वही ज्ञानी है । भाव यह है की प्रेम वास्तव में अनुभूति का विषय है ,चेतना का सूक्ष्म तत्व है । कबीरदास जी ने इस तत्व को पुष्प की गन्ध से भी सूक्ष्म और अनुपम कहा है -" पुहुप बास से पातरा ऐसा तत्व अनूप" गोस्वामी तुलसीदास जी के अनुसार -" रामहि केवल प्रेम पियारा जानि लेइ सो जाननि हारा " अर्थात् भगवान को केवल यह प्रेम तत्व ही प्यारा है जो इसे जानता है वही ज्ञानी है । यह तत्व बुद्धि ग्राह्य नहीं है । इस विवेचना से स्पष्ट है कि प्रेम अलौकिक तत्व है ।
लोक में प्रेम शब्द जिस भाव को व्यक्त करने के लिये प्रयोग किया जाता है ,वह वास्तव में 'राग' है । गोस्वामी तुलसीदास जी ने इसके लिये प्रीति शब्द का प्रयोग किया है -
"सुर नर मुनि सब कै यह रीती,स्वारथ लागि करहि सब प्रीती ।"
प्रीति, राग, काम यह शब्द स्वार्थ, अथवा वासनाजन्य सुखभोग की अपेक्षा से किसी अन्य के साथ सम्बन्ध जुड़ने के भाव को व्यक्त करते है, ऐसे सम्बन्ध बनाये और तोड़े जा सकते है, यह सम्बन्ध मजबूत और कमजोर भी हो सकते है ।रहीमदास जी ने वास्तव में ऐसे सम्बन्धो के लिये प्रेम शब्द का प्रयोग किया है जो अलौकिक प्रेम तत्व की वास्तविक अवधारणा को उद्भ्रांत करता है ।इसप्रकार लौकिक प्रेम का नाम राग है ।
दोनों शब्दों का तुलनात्मक विचार करने पर विभेद और अर्थ की सन्निकर्षता और अधिक स्पष्ट हो जाती है । प्रेम -आत्मानन्द है,और राग-विषयानन्द है । प्रेम के लिये अन्य की अपेक्षा नही होती जबकि राग के लिये दूसरे की अपेक्षा होती है । प्रेम ही जब परगामी होता है तो वह राग बन जाता है । यदि वह 'पर' (अन्य) इच्छापूर्ति का साधन बन जाय तो अपनापन और यदि बाधा बन जाय तो बैर की प्रतीति होती है । राग भी जब आत्मगामी होता है तो प्रेम बन जाता है अर्थात् आनन्द की इच्छा से जब चित्त किसी अन्य में जाता है तो राग बनता है,और जब स्वयं में डूबता है तो प्रेम बनता है । राग बंधनकारी है और प्रेम मुक्त करता है । राग में श्रम है, प्रेम में विश्राम है । प्रेम निष्क्रिय सुख को पूर्ण करता है, राग क्रियाजनित सुख को पुष्ट करता है । क्रियाशून्य सुख आत्मगत है, आत्मा में लेजाता है । क्रियाजन्य सुख परगत है,किसी अन्य में ले जाता है । प्रेम अकृत है, राग कृत है ।
सुख के लिये किसी अन्य में यात्रा होते ही राग अस्तित्व में आ जाता है । सुख के लिए अपने में लौटने से प्रेम अस्तित्व में आ जाता है । राग में चाह है और प्रेम में अचाह ।पर के अभाव में राग का फूल सुख जाता है जबकि प्रेम अचाह होने से और स्वयं पर आधारित होने से सदैव पुष्पित रहता है । प्रेमानन्द का दीप बिना तेल-बत्ती के जलता है और रागसुख का दीप विषय रूपी तेल तथा इन्द्रिय रूपी बत्ती के मेल से जलता है ।इसीलिये रागसुख में न्यूनाधिकता होती रहती है , जबकि प्रेमानन्द का दीप सदैव एकरस जलता रहता है ,कोई सहायक सामग्री न होने से इसके बुझने का तो प्रश्न ही पैदा नही होता ।
प्रेम के स्वरूप को ,स्वामी रामकृष्ण परमहंस के एक जीवन प्रसंग से सरलता पूर्वक समझा जा सकता है । स्वामी जी का एक शिष्य बार बार स्वामी जी से प्रश्न करता था कि भगवान कैसे मिलेंगे उनका दर्शन कैसे होगा ,उत्तर में स्वामी जी कहते थे कि उनसे मिलने के लिये अपने भीतर व्याकुलता पैदा करो, फिर देखो भगवान स्वयं मिलने आयेंगे । एक दिन स्वामी जी शिष्य के साथ गंगा में स्नान कर रहे थे, शिष्य ने जैसे ही डुबकी लगाई, स्वामी जी ने बलपूर्वक उसके सिर पर अपने हांथ का दबाव डाला ,कुछ ही समय में शिष्य प्राण रक्षार्थ छटपटाने लगा ,जब पर्याप्त रूप से शिष्य असहाय प्रतीत हुआ तब स्वामी जी ने हाथ का दबाव हटाया । जल से बाहर आने पर शिष्य ने स्वामी जी से ऐसा करने का कारण पूछा तो स्वामी जी ने उत्तर दिया कि तम्हे व्याकुलता का साक्षात्कार कराने के लिये । जब तुम जल में डूबे हुये थे तब बाहर आने के लिये तुमारे भीतर जो छटपटाहट थी ,उसी का नाम व्याकुलता है । प्राणों की रक्षा के लिये जो तड़प तुम्हारे मन में थी, जितनी व्याकुलता थी ,उतनी जब भगवान के दर्शनों की होगी ,तभी भगवान् के दर्शन होंगे । क्योकि भगवान् जिस भाव के भूखे है वह प्रेम रूप है । वह व्याकुलता की पराकाष्ठा में ही उदय होता है ।
वास्तव में प्रेय और प्रेमी में जब तक एकता नही होती तब तक प्रेम का अस्तित्व नही होता । व्याकुलता में केवल प्रेय रह जाता है,प्रेमी प्रेय में लीन हो जाता है और द्वैत भाव समाप्त हो जाता है । इस अवस्था में प्रेम का साक्षात्कार होता है । जीव को सर्वाधिक प्रिय उसके प्राण है क्योकि प्राणों से ही जीव का अस्तित्व है । प्राणों का अस्तित्व जिस नित्य आनन्दघन चेतना से है वह परमात्मा प्रेमरूप है । वह परमात्मा प्राणों का संचालक होकर जीवात्मा के रूप में शरीर की प्रत्येक गतिविधि का साक्षी है । परन्तु जीव माया के आवरण (अज्ञान) के कारण अपने स्वरूप से भटका हुआ है या कहे कि मूल को भुला हुआ है ।प्रकृति का नियम है कि समस्त जड़ चेतन की प्रवृत्ति मूलोन्मुखी है ,यही कारण है कि आत्मा परमात्मा में मिलना चाहता है ,यह मिलन अज्ञान के निवारनरूप बोध से होता है । ऐक्य बोध होने पर जीवात्मा परमात्मा से विलग नही रह सकता ,इस अवस्था में मिलन की जो व्याकुलता होती है वही प्रेम है । भारतवर्ष में ऐसे अनेक दिव्य महापुरुष हुए जिनके जीवन में प्रेम मूर्तिमान हुआ है । मीराबाई ,सूरदास, तुलसीदास, रामकृष्णपरमहंस, स्वामीरामतीर्थ एवम् एकनाथ आदि कुछ नाम उल्लेखनीय है ।
राग - सात्विक, राजसिक और तामसिक भेद से तीन प्रकार का होता है । गुरु कृपा ,स्वाध्याय और साधना से क्रमशः तामसिक आदि प्रवृत्तियों को सात्विकता की ओर मोड़ देने से शनैः शनैःसंसार की असारता के बोध से सांसारिक आसक्ति से जब व्यक्ति मुक्त हो जाता है तो पर(अन्य) की अपेक्षा नही रह जाती है । साधक समदृष्टि में स्थिर हो जाता है ,अर्थात् द्वैत नष्ट हो जाता है ,उसका राग, प्रेम रूप हो जाता है । इसप्रकार राग की उच्चतर अवस्था का नाम भी प्रेम है । प्रेम वास्तव में जीवन का वह रहस्य है जिसको मुझ जैसे अल्पबुद्धि की तो बात ही क्या बड़े बड़े ज्ञानी, ध्यानी और तपस्वी भी सम्पूर्ण रूप से समझने में असमर्थ है । प्रभु प्रसाद रूप यह लघु लेख जिज्ञासु जनो का पाथेय बन सके उन्हें अपना मार्ग सुनिश्चित करने में स्पष्टता प्राप्त हो यही लेख का उद्देश्य, प्रयोजन है ।
हरिः ॐ तत्सत्
डा0 दयानन्द शुक्ल
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