जीवन-ज्योति
जीवन-ज्योति
सामान्यतया जन्म जिसका प्रारम्भ है और मृत्यु जिसका अंत है उसे जीवन कहते है । उस जीवन को प्रकट रूप में जिन लक्षणों से पहचाना जाता है वह उसकी ज्योति कहलाती है । ज्योति का अर्थ होता है- प्रकाशित होना, अर्थात् जीवन का होना या न होना ,उसका कमजोर या बलवान होना, शिथिल या रुग्ण होना आदि का बोध ही ज्योति है । जीव शब्द से जीवन शब्द बना है ,जीव को प्राणि भी कहते है । प्राण के संचरण के कारण ही जीव को प्राणि संज्ञा मिली अतः जब तक प्राण का संचरण होता है तभी तक जीव को जीवित माना जाता है ।जन्म से मृत्यु तक की अवधि को जीवनकाल कहते है । सुख और दुःख जिसके अपरिहार्य विकार है तथा जो जरा और व्याधि से ग्रस्त होता है तथा मृत्यु को प्राप्त होता है , वही जीवन कहलाता है । ज्योति का जलना ही जन्म है और ज्योति का बुझना ही मृत्यु है । ज्योति का धीमी हो जाना ही जरा, और प्रवाहरूप न होना ही व्याधि है । श्रीमद् भगवतगीता कहती है -" जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर् ध्रुवम् जन्म मृतस्य च " । जन्मने वाले की म्रत्यु निश्चित है और मृत्यु के बाद जन्म निश्चित है । अतः जीवन के विषय में यही धारणा बनती है कि जीवन पैदा होता है, जीवन नष्ट होता है, जीवन विकारी है । जैसे धूम्र और ज्वाला सूक्ष्म तत्व रूप अग्नि का बोध कराने वाले स्थूल पदार्थ है ,ये तत्वबोध के साथ ही तत्व के दाहकता और तेज आदि उसके गुणधर्मो का भी बोध कराते है उसी प्रकार चेतना, संवेदना, वृद्धि, ह्रास आदि लक्षणो से जीवन ज्योति का बोध होता है ।
जीवन विषयक उपदेश में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते है कि - "न जायते म्रियते वा कदाचिन्
नायं भूत्वा भविता न भूयः
अजो नित्यः शाश्वतोयं पुराणों
न हन्यते हन्यमाने शरीरे ।" गीता 2/20
यह न तो उतपन्न होता है और न ही नष्ट होता है, यह सनातन और शाश्वत तत्व है ,शरीर के नष्ट होने से भी यह नष्ट नही होता है ।
अस्तु जिज्ञासा होती है कि जीवन वास्तव में क्या है ? सृष्टि करता और पालनहार परमपिता भगवान की वाणी के रहस्य को जानना ही जिज्ञासा समाधान हो सकता है ।जीवन के अस्तित्व की अनुभूति शरीर के सम्बन्ध से है, शरीर नाशवान है यह प्रत्यक्ष से सिद्ध होता है ,शरीर की आवश्यकता और प्रयोजन भोग के लिये है, भोग पूर्ण हो जाने पर शरीर का प्रयोजन समाप्त हो जाता है । वास्तव में भोग कर्ता तो जीव है, सुख दुःख का अनुभव कर्ता भी जीव ही है, शरीर तो मात्र भोग का उपकरण है । गीता में इसे क्षेत्र कहा गया है । शरीरस्थ जीव भोग करता है । यहां जीव के स्वरूप को जानना समीचीन है ,जीव को सूक्ष्म शरीर भी कहते है । पंचतन्मात्राये (रूप, रस,गन्ध, स्पर्श,शब्द) और अंतःकरण (मन,बुद्धि,चित्त,अहंकार) मिलकर सूक्ष्म शरीर बनता है । प्रारब्ध के संस्कार रूप बीज इस सूक्ष्म शरीर में रहते है ,उनके फल भोग के लिये इसे भिन्न भिन्न शरीरो में आना और जाना पड़ता है । प्रकृति से स्थूल शरीर की भाँति सूक्ष्म शरीर भी जड़ है अस्तु आवागमन और भोग इसके द्वारा सम्भव नही, परन्तु नित्य ,शाश्वत चैतन्य जिसकी व्याप्ति अखिल ब्रह्माण्ड में है, के कारण जीव (सूक्ष्म शरीर) शरीर पाते ही जीवन्त हो जाता है ।एक तीसरा शरीर होता है- कारण शरीर जो स्थूल और सूक्ष्म दोनों का कारण है, यह अज्ञान रूप है ,इसलिये जीव दूसरे की सत्ता को अपनी सत्ता समझकर व्यवहार करता है ।यानी कि स्वसन, आहार, निद्रा, गति, वृद्धि, बोलना, देखना आदि शरीर के धर्मो को अपने धर्म समझता है ।सूक्ष्म अथवा स्थूल शरीर द्वारा होने वाले समस्त कार्य वास्तव में होते तो शरीरस्थ चेतना के कारण है परन्तु अज्ञानी जीव उन्हें अपने जानता है । जैसे जड़ बल्व चैतन्य विद्युत् धारा के प्रभाव में आते ही प्रदीप्त हो जाता है,उस अवस्था में प्रकाश, उष्णता आदि कार्य व्यवहार में बल्व के होते है न कि विद्युत के जबकि विद्युत् ही प्रकाश रूप से व्यक्त होती है । उसीप्रकार शरीरस्थ चेतना के प्रभाव से जीव चैतन्यवत हो जाता है ।जीव का यह चैतन्य ही व्यवहार में जीवन समझा जाता है ,इसी कारण जीवन में प्रारम्भ और अंत देखा जाता है । परन्तु वास्तव में यह जीवन नही अपितु जीवनाभास है । जबतक अज्ञान की निवृत्ति नही होती तबतक वह अपने स्वभाव, अपने स्वधर्म और अपने स्वरूप को नही जान पाता । फलस्वरूप सुख दुःख के हेतु पूण्य पाप के संस्कार बीज सञ्चित करता रहता है ,उन्ही में से कुछ बीज प्रारब्ध बन कर अगले जन्म के हेतु बनते है ।जीव के सानिध्य से भुवनव्यापी अखण्ड,अनंत,शाश्वत चैतन्य जीवात्मा की संज्ञा प्राप्त कर लेता है अर्थात् जीवात्मा कहलाता है । जड़ और चेतन के संयोग में जड़ स्थूल और व्यक्त है ,इन्द्रिय ग्राह्य है और मन एवम् बुद्धि का विषय है जबकि चेतन (आत्मा) अव्यक्त है,इन्द्रिय ग्राह्य नही है, नित्य है, अनिर्वचनीय है साक्षी है और अकर्ता है । गोस्वामी जी लिखते है -"जड़ चेतनहि ग्रंथि परि गई जदपि मृषा छुटत कठिनई" । अर्थात् आत्मा की सत्ता से सत्तावान हुआ जीव अज्ञानता से मुक्त न हो पाने के कारण अपने मूल स्वरूप -अकर्ता ,साक्षी चैतन्य को भूल बैठा है और नित्य को नाशवान समझ रहा है ।
गोस्वामी जी स्पष्ट कहते है -
"ईश्वर अंश जीव अविनाशी चेतन अमल सहज सुखराशी ।" -रामचरितमानस
यहाँ ईश्वर से अभिप्राय परमात्मा और जीव का तात्पर्य आत्मा से है ।आत्मा को परमात्मा का अंश कहा है तथा उसे चेतन, अविनाशी, शुद्ध, सहज और सुख की राशि कहा है । अतः जीवन भी इन्ही लक्षणो वाला है ।वास्तव में समष्टि के विचार से जो परमात्मा है वही व्यष्टि के विचार से आत्मा है । कारण-कार्य सिद्धांत से तथा अंश-अंशी भाव से स्वरूपगत दोनों एक ही है ।अतः जीवन एक अविनाशी सत्ता है ।
श्रीमद्भगवतगीता में श्रीकृष्ण परमात्मा के रूप में कहते है -
"ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः" । गीता 15/7
इस देह में यह जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है । अंश ,अंशी से भिन्न नही हो सकता अस्तु जीवात्मा भी अजो नित्यः शाश्वतोयं पुराणों है ।इतना ही नही वह यह भी बताते है कि इसे शस्त्र से काटा नही जा सकता, अग्नि इसे जला नही सकती, जल भिगो नही सकता और वायु इसे सुखा नही सकती ।
"नैनमछिंदन्ति शस्त्राणि नैनमदहति पावकः
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः"। गीता 2/23
भाव यह है कि शरीरस्थ आत्म तत्व प्रत्यक्षतः जीवन है जो नित्य, चेतन,आनन्दघन है ।परमात्मा का अंश होने से अवध्य और अविनाशी है ।
भगवान श्रीकृष्ण यह भी बताते है कि लोक में क्षर और अक्षर भेद से दो प्रकार के पुरुष है , इनमे समस्त भूत प्राणियो के शरीर तो नाशवान है और उनमे जीवात्मा अविनाशी है ।
"द्वाविमौ पुरुषौ लोक क्षरश्चाक्षर एव च
क्षरः सर्वाणि भूतानि कुटस्थोअक्षर उच्यते ।" गीता 15/16
अर्थात् शरीर को पुरुष मानने वाले नाशवान और जीवात्मा को पुरुष मानने वाले अविनाशी है । आगे भगवान् कहते है - इन दोनों से उत्तम पुरुष तो अन्य ही है जो तीनो लोको में प्रवेश करके सबका धारण -पोषण करता है अर्थात् परमात्मा क्योकि वह जड़ सृष्टि से सर्वथा अतीत है । वास्तव में जडवर्ग क्षेत्र से जो भिन्न है वह चेतन है ,वही जीवन है । यद्यपि परमात्मा अखिल ब्रह्माण्ड के कण कण में व्याप्त है परन्तु अव्यक्त होने के कारण भासित नही होता वही जब अंश रूप से जीवात्मा के रूप में होता है तो शरीर के माध्यम से कार्य रूप में व्यक्त होकर इन्द्रिय गोचर होता है और जीवन कहलाता है । श्रीकृष्ण अर्जुन से स्पष्ट रूप से कहते है -
"अविनाशि तू तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमहर्ति ।" गीता 2/17
अर्थात् अविनाशी ,तू उसको जान जिससे यह सम्पूर्ण दृश्य जगत व्याप्त है ,इस अविनाशी का विनाश करने में कोई समर्थ नही है ।
निष्कर्ष रूप में जीवन का आधार, पोषण और अस्तित्व परमात्मा है । परमात्मा के व्यक्त होने पर जीवन व्यक्त होता है । जीवन का व्यक्त होना ही जीवनज्योति का प्रदीप्त होना है । पञ्चभूतात्मक सृष्टि में जीवन ज्योति के रूप में जीवात्मा ही समस्त कार्य व्यवहार का संचालक और नियामक है ।आत्मा जीव के साथ रहते हुये भी उदासीन की भाति जीव के कार्यो से निरपेक्ष रहकर साक्षी मात्र है । जीव का आत्मा से संयोग प्राणी का जीवन है । जो शरीर और आत्मा को पृथक पृथक देखता है वह जीवन को तत्व से जानता है ।
हरिः ॐ तत्सत्
डा0 दयानन्द शुक्ल
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