जीवन की सार्थकता

                               जीवन की सार्थकता
         जीवन क्या है ?  इसको जाने बिना जीवन की सार्थकता को समझा नही जा सकता । क्या जीवन पैदा होने और नष्ट होने वाला कोई पदार्थ है ? क्या जीवन दुखी और सुखी होने वाला है ? क्या जीवन ही पाप और पूण्य का हेतु है  ? क्या जीवन को इच्छानुसार परिवर्तित किया जा सकता है ? आदि आदि अनेक जिज्ञासाएँ जीवन के सम्बन्ध में होती है, जिनके समाधन हमारे शास्त्रो, पूर्वज ऋषियो, चिंतकों और दार्शनिको ने अपने अपने तरीके से दिया है परन्तु वेदांत के अनुसार जीवन एक ब्रह्माण्ड व्यापी तत्व है जो समस्त जगत का मूल कारण है, सत् ,चेतन और आनन्दस्वरूप है । उसका दूसरा कोई कारण नही है, वह स्वसंकल्प से नानाविध जड़ ,चेतन सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त है । जीवन एक प्रवाह है जो अनादि और अनन्त है । प्रवाह ही इसकी जीवनी-शक्ति है ।श्रीमद् भगवतगीता में श्रीकृष्ण इसे जन्म-मृत्यु रहित और नित्य बताते हैं ।
         मनुष्य जीवसृष्टि की श्रेष्ठतम रचना है ,मनुष्य की यह श्रेष्ठता उसमे निहित विचार शक्ति के कारण है  । मनुष्य का शरीर प्राप्त होना जीव का महान सौभाग्य माना जाता है । रामचरितमानस में तुलसी दास जी लिखते है -
"बड़े भाग्य मानस तनु पावा सुर दुर्लभ सद् ग्रन्थनि गावा ।"
"नर तनु सम नहि कवनेहुँ देही जीव चराचर जाचत जेही ।"
अर्थात् मनुष्य शरीर जैसा कोई अन्य शरीर नही है ,समस्त चराचर प्राणी जिसकी इच्छा करते है , यह पूर्वकृत पुण्यो के फलित होने पर प्राप्त होता है या कहे कि सौभाग्य से प्राप्त होता है ऐसा सद् ग्रन्थ कहते है ।
फिर प्रश्न उठता है कि प्राणियो में मनुष्य ही सर्वाधिक दुःखी क्यों है ? अन्य प्राणी भी दुःख भोगते है और उससे मुक्त होना चाहते है परन्तु उनमे विवेक-विचार शक्ति न होने के कारण दुःख निवृत्ति का उपाय नही कर पाते तथा विचार शक्ति हीनता के कारण दुःख का अनुभव भी मनुष्य की अपेक्षा अल्प करते है ।मनुष्य विचार शक्ति प्रधान होने के कारण दुःख - सुख के प्रति अधिक संवेदनशील है ,परन्तु इसी विचार शक्ति से वह दुःख निवृत्ति करने में भी समर्थ है । सुख की चाहना जीवमात्र को है । सुख कहां और कैसे मिलेगा, यह विचार शक्ति से जाना जा सकता है । सुख की खोज के बाद उसकी प्राप्ति का साधन भी विचार शक्ति से शक्य है । जीवन की सफलता और सार्थकता , इस एकांतिक चरम की प्राप्ति में ही निहित है  ।अधिकांशतः तो दुखसागर में गोते लगते हुये ही आयु पूर्ण कर लेते है,कुछ प्रज्ञा शील सुख प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील होते है और कुछ तो दुःसाध्य समझकर प्रयत्न ही नही करते, ऐसे लोगो का मनुष्य होना सौभग्य का विषय नही कहा जा सकता इसे जीवन की निरर्थकता कहा जा सकता है ।
             प्रियता और शांति सुख के विशिष्ट लक्षण है  । जहाँ यह दोनों है वहीँ सुख है  ।हमारे भीतर और बाहर सब और अशांति का साम्राज्य है इसका कारण यह है कि हम जन्म से मृत्यु पर्यन्त की समयावधि को ही जीवन मानते है जबकि जीवन नित्य , अविनाशी और शान्त है । इसप्रकार की अज्ञानता का प्रमुख कारण यह है कि हम अपने बारे में कभी विचार ही नही करते कि " मैं क्या हूँ अथवा कौन हूँ " । इतना ही नही तो बिना जाने समझे शरीर को ही "मै" मानते है ।विचार करे- "मै शरीर हूं"  अथवा शरीर से भिन्न कुछ अन्य । ' ये मेरे हाथ है, ये मेरे पैर है, ये मेरी आँखे है' आदि आदि जब हम कहते है तो हाथ, पैर, आँख आदि हमसे भिन्न हुए इसलिये ये मै नही यह स्पष्ट सिद्ध होता है । "यह मेरा मकान है " इस कथन का तातपर्य है कि मैं मकान नही हूँ । मकान के टूटने या गिर जाने पर हम यह कभी नही कहते कि मै गिर गया या टूट गया ।इसप्रकार गम्भीरता पूर्वक यदि हम विचार करे तो तो समझ में आयेगा और अनुभव होगा कि मै शरीर नही हूं और शरीर मेरा नही है, क्योकि यदि मै शरीर होता तो मै उसका दृष्टा या मालिक नही हो सकता था । हमारा अनुभव है कि हम दृष्टा के रूप में देखते है कि मन क्या चाह रहा है, बुद्धि क्या सोच रही है आदि । इससे यह स्पष्ट है कि मैं शरीर से अलग कुछ हूँ ।वास्तव में इसी नासमझी के कारण हम वह जीवन नही जीते जो हम वास्तव में हैं ।कहने का आशय यह है कि जीवन की सार्थकता यही है कि हम जो वास्तव में है तदनुसार ही जीवन जिये ।
         यह एक व्यवहारिक सत्य तथ्य है कि जिसको 'यह' कहते है उसे 'मै' नही कह सकते, क्योकि एक दृष्टा है और एक दृश्य । एक श्वामी और एक सेवक  । वास्तव में जब हम देह से अपने को मिला देते है ,अर्थात् देह में ही जीवन बुद्धि हो जाती है यानी अपने को शरीर मानते है तब अपने में अनेक उपाधियां जोड़ लेते है ,जैसे मै अमुक हूं , मेरा 'यह' आदि । देश, जाति, सम्प्रदाय, पद, कुल, कुटुम्ब और कार्यक्षेत्र के अनुरूप अनेक मान्यताओ से अपने को जोड़ लेते है ।देह के तादाम्य से देहाभिमान उतपन्न होता हैऔर देहाभिमान से ममता और कामना का जन्म होता है ।जीवन की सार्थकता के लिये ममता का तोडना आवश्यक है परन्तु देहाभिमान के कारण ममता टूटती नही क्योकि ममता दैहिक सुख का प्रमुख हेतु है । जिससे जितनी अधिक ममता होगी ,उससे उतना ही अधिक दैहिक सुख  मिलेगा  । दैहिक सुख सदा नही रह सकता तथा उसका अन्त सदैव दुःख दाई होता है  अस्तु जिसके साथ हमारा नित्य सम्बन्ध नही रह सकता उसको अपना मानना हमारी बहुत बड़ी भूल है ।
           भारतीय संस्कृति में उस जीवन को प्रशस्त जीवन माना गया है जो शान्त हो, सन्तुष्ट हो, पवित्र हो और आनन्दमय हो । इनका सम्बन्ध वाह्य पदार्थो से नही अपितु व्यक्ति की अपनी वृत्तियों से है । पदार्थो  का ढेर लग जाय तो भी शांति का जन्म नही हो सकता, संसार की समस्त सुविधायें भी सदा के लिये तुष्टि नही दे सकती,पवित्रता का पदार्थो से कोई सम्बन्ध ही नही है और आनन्द का निवास तो चित्त की पवित्रता में ही होता है । अस्तु सार्थक जीवन जीने के लिये अपनी वृत्तियों को अंतर्मुखी करना होगा  और स्वयं को जानकर आत्मस्थ होकर व्यवहार में उतरना होगा ।
          जीवन की सार्थकता समय के सदुपयोग से सिद्ध होती है  । हमारी आयु सीमित है ,इसलिये अज्ञान के निवारण और ज्ञान की उपलब्धि हेतु समयबद्ध साधना का क्रम जीवन को सार्थकता प्रदान करता है । हमारा एक क्षण भी व्यर्थ नही जाना चाहिये । आलस्य, प्रमाद, भोग, पाप और अनुचित निद्रा को विष के समान समझ कर इनका सर्वथा त्याग कर देना चाहिये ।करने योग्य कार्य में विलम्ब करना आलस्य कहलाता है , शास्त्र विहित कर्तव्य कर्म की अवहेलना प्रमाद है ,विलासिता और विषयो में रमण करना भोग कहलाता है, झूठ,कपट, चोरी, व्यभिचार, हिंसा आदि  पाप है और छः घंटे से अधिक सोना अनुचित निद्रा कही जाती है । कल्याणकामी पुरुष को उचित है कि वह दिन रात के अपने पूरे समय को विभाजित कर निष्काम भाव से कर्तव्य कर्म करे और जीवन को साधनामय बनाये । गीता में भगवान् श्रीकृष्ण कहते है -
   "युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य  कर्मसु
     युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ।"  6/17
अर्थात् दुःखो का नाश करने वाला योग तो उचित आहार-विहार करने वाले, कर्मो में उचित चेष्टा करने वाले, उचित सोने और जागने वाले का ही सिद्ध होता है ।
जिस शाश्वत सत्ता से जीवन है उसे जानने की चाह और उसका स्फुरण स्वयं में अनुभव करने हेतु ज्ञानमार्ग का पथिक होना ही जीवन की सार्थकता है  । संसार में अनासक्त भाव से जल में कमल वत जीना जीवन की सार्थकता है । हमारी प्रत्येक क्रिया में भगवदर्थ बुद्धि होनी चाहिये । भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते है -
   " यत्करोसि यदश्नासि यज्जुहोसि ददासि यत् ।
    यत्तपस्यसि कौन्तेय तत् कुरुष्व मदरपणम्  ।।
    शुभा शुभफलैरेवं मोक्ष्यसे करम्बन्धनैः ।
    सन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि ।।"  9/27-28
हे अर्जुन ! तू जो कर्म करता है, तू जो खाता है, जो हवन करता है, जो डान करता है, वह सब मेरे अर्पण कर । इसप्रकार जिसमे समस्त कर्म मुझमे अर्पण होते है ,ऐसे सन्यासयोग से युक्त चित्त वाला तू शुभा शुभ फल रूप कर्मबन्धन से मुक्त हो जायेगा और मुक्त होकर मुझको ही प्राप्त होगा ।
मोक्ष को प्राप्त होना अर्थात् संसार में आवा गमन से छूट जाना ही तो मुक्त होना है । इसी से समस्त दुःखो की आत्यंतिक निवृत्ति सम्भव है  । जीवन का चरम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति है , मोक्ष केवल मनुष्य ही प्राप्त करने में समर्थ है अस्तु मनुष्य जन्म का प्रत्येक क्षण मूल्यवान है । स्वयं को आत्मा न जानते हुये शरीर जानता है वह यह भी नही जानता कि आत्मा और परमात्मा एक ही है, इसकारण परमात्मा में विश्वास के अभाव में मनुष्य संसार सुख की अभिलाषा में अपने अमूल्य समय को व्यर्थ खो देता है । अतः मनुष्य को उस अनन्त सुख रूप परमात्मा की प्राप्ति के लिये ही अपना समय लगाना चाहिये तभी समय का सदुपयोग है और तभी जीवन की सार्थकता है ।
हरिः ॐ तत्सत्
डा0 दयानन्द शुक्ल
          

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