त्याग और सन्यास

                            त्याग और सन्यास
             त्याग भारत भूमि का वैशिष्ट्य है और सन्यास उसकी सुगन्ध है । वैदिक काल से अद्यतन कभी इन दोनों शब्दों की महिमा घटी नही, भारतीय संस्कृति का वह प्राणतत्व जिसके कारण यह अजेय है ,इन्ही दो शब्दों में निहित है । अतिप्राचीन काल में ऋषियो ने उदघोष किया था -
   " ईशावाश्यामिदमसर्वम यत्किंचितजगत्यां जगत
     तेन त्यक्तेन भु ञ्जीथाः मा कस्य स्विद्तद्धनम।" -इशावाश्योपनिषद्
इस संसार में जो कुछ भी है वह परमात्मतत्व मय है ,उसका भोग त्याग पूर्वक करो,किसी के धन का लोभ मत करो ।
भाव यह है कि इस जगत में तुम्हारा अपना क्या है, तुम स्वयं भी तो किसी अन्य (परमात्मा) की कृति हो, वह कृतिकार कण कण में समाया हुआ है, वह अपनी कृति का संरक्षण,सञ्चालन का अव्यक्त दृष्टा एवम् प्रहरी है, प्रत्येक गति विधि का प्रति क्षण साक्षी है अस्तु उसकी आज्ञा से केवल जीवन निर्वाह हेतु ही भोग का तुम्हारा अधिकार है । ऐसी जीवन दृष्टि से त्याग शब्द अस्तित्व में आया ।व्यवहार में त्याग का अर्थ है- छोड़ना , परंतु क्या छोड़ना, कैसे छोड़ना और क्यों छोड़ना जैसे प्रश्नो से त्याग विषयक चिंतन आगे बढ़ा । अन्ततः निश्चय हुआ कि दूसरे को सुख देने के लिये अपने सुख को छोड़ना ही वास्तव में त्याग है । परोपकार और परहित की भावना का उदय त्याग की मनो दशा का परिणाम है ।
             संसार में दो प्रकार के मनुष्य है एक वह जो ज्ञानी है ,समत्व में स्थित है,सब में स्वयं को और स्वयं में सबको देखते है  अर्थात् जिनकी दृष्टि में कोई पराया है ही नही उनका त्याग सन्यास कोटि में आता है और दूसरे वह जो अपने शरीर को ही सब कुछ मानते है ,उसके लिये ही जीते है ,अपने स्वयं के अतिरिक्त सब पराये है । यद्यपि बहुसंख्यक दुसरी कोटि के लोग ही है परन्तु सभ्यता के विकास के साथ मनीषियों, चिंतको और शास्त्रकारों ने मानवीयता की आवश्यकता और उसके महत्व का साक्षात्कार करके समाज का मार्गदर्शन किया जो त्याग पर आधारित है और विश्वपटल पर भारतीय दर्शन के रूप में आज भी प्रतिष्ठित है । इसी दर्शन ने इस देश को महर्षि दधीच, राजा शिवि, महाराज हरिश्चंद्र जैसे त्यागी महापुरुष दिये, इसी दर्शन ने विवेकानंद, शंकराचार्य जैसे ग्यानी दिए और इसी दर्शन ने महाराणा प्रताप जैसे स्वाभिमानी दिये और इसी दर्शन ने देश के लिये अपने प्राण न्योछावर करने वाले अगणित बलिदानी सपूत दिये । इन सभी ने इस धरती पर त्याग का ही महिमा मण्डन किया है । यह कुछ उदाहरण विषय पर आपका ध्यान आकृष्ट करने के लिये दिये गये है । भारतीय इतिहास ऐसे असंख्य त्यागी महापुरुषों से भरा पड़ा है जिनके व्यक्तित्व और कृतित्व से भारतीय समाज प्रेरणा लेता आया है और जिसके कारण भारतीय संस्कृति विश्व की अक्षय संस्कृति बनी हुई है ।
           त्याग के अनेक रूप लोक व्यवहार में देखे जाते है जैसे कोई अधिक लाभ के लिये अल्प का त्याग कर देता है तो कोई भय वस त्याग करता है, अपने बड़े, श्रेष्ठ, गुरु और राजा आदि की आज्ञा पालन में भी त्याग होता है ,परिवार के भरण-पोषण में भी त्याग करना होता है । वास्तव में त्याग का यह स्वरूप उसके मूलार्थ को स्पष्ट नही करता क्योकि यह सब मनुष्य की स्वाभाविक चेष्टाओं के अंतर्गत होता है ,इसके लिये मनुष्य को अपनी इन्द्रियों को साधना नही पड़ता । त्याग एक तप है जिसमे इन्द्रियों की आधीनता से मुक्त होकर कर्म करने की साधना होती है ।यह तप सिद्ध होने पर त्याग में कोई विवसता अथवा स्वार्थ नही रहता और त्यागी लोक संग्रह हेतु समभाव से दुसरो के लिये त्याग का व्यवहार करता है । जब त्याग से निजी दुःख का आभास न हो तभी वह त्याग कहलाता है । त्याग में निज के सुख को तो छोड़ना सिद्धांततः आवश्यक है ही  परन्तु वास्तविक तथ्य यह भी है कि सन्यासी के निज का दुःख भी छूट जाता है ।
           सन्यास के नाम पर तो जीवन के अंतिम काल खण्ड को सन्यास आश्रम  नाम से जाना जाता है । भारत की वर्णाश्रम धर्म व्यवस्था वैदिक काल से चली आ रही है  अस्तु सन्यास शब्द आश्रम व्यवस्था से पूर्व में भी रहा होगा । वेद विश्व का प्राचीनतम साहित्य माना जाता है ।अस्तु सन्यास शब्द वेदों से ही प्राप्त शब्द है इसमें कोई सन्देह नही है । वेद व्यास रचित महाभारत को विषय विस्तार की दृष्टि से पंचम वेद कहा जाता है ,उसी का एक अंश श्रीमद्भगवतगीता है जिसके कई अध्यायों में सन्यास शब्द अनेक बार आया  है । काल क्रम से जगतगुरु शंकराचार्य ने सन्यास की दीक्षा लेने वाले लोगो के लिये वेश और आचार संहिता निर्धारित कर सन्यासी केन्द्रो की स्थापना की जिन्हें ज्ञानपीठ नाम दिया गया । इन पीठो के माध्यम से सम्पूर्ण भारतवर्ष को तत्वज्ञान की डोर से एकता के सूत्र में पिरोने और सन्यास के मर्म को व्याख्यायित करने का सुदृढ़ और स्थाई कार्य प्रारम्भ हुआ जो अद्यतन चल रहा है  ।देश के इस प्रकल्प से करोडो लोग सन्यासी बन गए । यह लोग त्याग के आदर्श के रूप में समाज में पूज्य हुये । आज भी दण्ड-कमण्डल और भगवावेश धारी को सन्यासी -महात्मा को समाज में विशिष्ट सम्मान प्राप्त है ।इसका दुखद और चिंताजनक पहलू भी वर्तमान समय में दृष्टिगोचर होता है कि अनेक ठग और धनलोलुप लोग सन्यासी वेश की आड़ में सामान्य जन की आस्था और श्रद्धा का दोहन अपने ऐश्वर्य भोग के लिये करने लगे और त्याग तथा भगवा वेश कलंकित होने लगा ।इसका एक कारण यह भी है कि सभी सन्यासी, सन्यास के तत्वबोध को धारण नही कर सके और वैराग्य के झूठे आवरण से सत्य को छुपाने के लिये कृतिम आडम्बरो का सहारा लेकर यश और सम्मान प्राप्त करने के लिये सन्यास को साधन बना लिया ।
               त्याग और सन्यास में विभेद कर पाना सामान्य जन के लिये सहज साध्य नही है ।श्रीमद्भगवतगीता में जब भगवान् कृष्ण अर्जुन को भक्ति, ज्ञान, और कर्म के तत्व का उपदेश कर चुके,तब भी अर्जन के मन में त्याग और सन्यास के विषय में शंका बनी रही । इस शंका समाधान के लिये अर्जुन ने जिज्ञासा प्रकट की -
  "सन्यासस्य महाबाहो तत्वमिच्छामि वेदितुम
    त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशि निषूदन । " गीता 18/1
हे महाबाहु ! हे अन्तर्यामिन ! हे बासुदेव ! मैं त्याग और सन्यास के तत्व को पृथक पृथक जानना चाहता हूँ ।
गीता में अर्जुन एक अज्ञानी जीव की भूमिका में शिष्य के रूप में है और श्रीकृष्ण साक्षात परमात्मा की भूमिका में सदगुरु के रूप में है । श्रीकृष्ण पहले तत्कालीन अवधारणाओं पर प्रकाश डालते हुये कहते है कि कुछ विद्वान लोग सभी कर्मो को दोषमय देखते है तथा कुछ  ऐसा नही मानते, और कुछके अनुसार यज्ञ, दान और तप अवश्य करणीय कर्म है अतः उन्हें तो करना ही चाहिये  । अतः सभी कर्मो का त्याग करना है या नही उसका विश्लेषण कर सात्विक, राजस् और तामस आधार पर कर्मो के विभाग करते हुये श्रीकृष्ण भी यज्ञ, दान और तप रूप सात्विक कर्मो का त्याग उचित नही मानते है । वे स्पष्ट रूप से कहते है -
   "एतान्यपि तू कर्माणि सङ्गन्त्यक्तवा फलानि च
    कर्तव्यानीति में पार्थ निश्चितम् मतमुत्तमम् "  गीता 18/6
अर्थात् आसक्ति और फल का त्याग कर यह कर्म (यज्ञ,दान, तप) अवश्य करने चाहिये । ऐसा मेरा निश्चित मत है ।
काम्य कर्म राजस् और तामस होने से त्याज्य है । श्रीकृष्ण बार बार अर्जुन को नियत कर्म करने का उपदेश करते है । यह नियत कर्म शास्त्रोक्त कर्म है ,शास्त्रविधि से निर्धारित कर्म का त्याग उचित नही है। संगदोष और फल का त्याग ही सात्विक त्याग है अतः नियत कर्मो के सिवाय जो कुछ है उसका त्याग ही त्याग कहा जाता है ।
              सकाम कर्मो का फल अच्छा, बुरा या मिलाजुला जन्म जन्मांतरों तक मिलता है ,अतः वे बंधनकारी है  । मुक्ति का हेतु रूप सम्पूर्णता में त्याग कल्याणकारी है ऐसे त्याग का नाम ही सन्यास है । न्यास का अर्थ होता हे -अन्त  ,अस्तु सन्यास समस्त कर्म संस्कारो के समन की अवस्था है जो जीवन की चर्मोत्कृष्ट अवस्था है । भगवान् कृष्ण कहते है कि सन्यासी के कर्मो का फल किसी भी काल में नही होता ।
   "अनिष्टमिष्टं मिश्रं  च त्रिविधं कर्मणः फलम्
   भवत्य त्यागिनां प्रेत्य न तु सन्यासिनां क्वचित् ।" गीता 18/12
इष्ट ,अनिष्ट और मिश्रित तीनो प्रकार से त्यागी के कर्म फलित होते है, सन्यासी के कभी नही ।
              सार संक्षेप रूप से  वस्तु -पदार्थ का त्याग ,त्याग है और संकल्पों का त्याग ,सन्यास है । त्याग में चाहना बनी रहती है परंतु सन्यास में चाहना नही रहती । तामस और राजस् कर्मो से होने वाला त्याग, त्याग है जबकि सात्विक कर्मो से होने वाला त्याग, सन्यास है ।त्याग साधना है ,सन्यास साधना का फल है । त्याग अंतःकरण को शुद्ध करता है ,सन्यास आत्मनिष्ठ है । त्याग का आयाम, व्यवहार जगत तक है ,सन्यास का आयाम पारमार्थिक है । त्यागी में भेद दृष्टि रहती है ,सन्यासी में भेद दृष्टि नही होती वह समत्व योग में स्थित रहता है ।त्याग अज्ञानावस्था का और सन्यास ज्ञानावस्था का सूचक है ।
हरिः ॐ तत्सत्
डा0 दयानन्द शुक्ल

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