धर्म का मर्म
धर्म का मर्म
धर्म एक सर्वाधिक विवादास्पद शब्द है , क्योकि आजतक इसकी कोई सार्वभौम परिभाषा नहीं की जा सकी है । प्राचीनकाल से लेकर अद्यतन धर्म की अगणित व्याख्याए की गयी है परंतु प्रायः सभी आंशिक रूप से ही धर्म का स्वरूप स्पष्ट करती हुई प्रतीत होती है । किसी ने धर्म को सत्य, किसी ने परहित, किसी ने अहिंसा, किसी ने दान, तो किसी ने कर्तव्य और किसी ने सेवा आदि को धर्म बताया । श्रीमद् भगवतगीता और रामायण जैसे लोकमान्य ग्रंथो में कहा गया है "यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ,"या "जब जब होइ धरम की हानी "से इतना तो पता चलता है कि धर्म ऐसा है जिसकी हानि या कमी होती रहती है जिसकी पूर्ति के लिये स्वयं भगवान् को भूतल पर साकार होना पड़ता है - "धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे यगे "या "तब तब धरि प्रभु विविध शरीरा हरहि कृपानिधि सज्जन पीरा "। इस तथ्य को गीता में भगवान् स्वयं कहते है और रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास इसकी पुष्टि के साथ यह भी कहते है कि विप्र धेनु,सुर,सन्त हित लीन्ह मनुज अवतार अर्थात् धर्म की स्थापना का अभिप्राय ब्राह्मण, गौ, देव और संत इन चार का हित साधन बताया है ।
भारत में श्रद्धा और धार्मिक आस्था के लोकप्रिय ग्रन्थ श्रीमद्भागवत् में प्रारम्भ में ही धर्म को बैल और पृथ्वी को गाय के रूप में संवाद करते हुये प्रस्तुत किया गया है , यहाँ बैल के तीन पैर टूटे हुये है वह केवल एक पैर से किसी प्रकार घिसट रहा है, गाय भी अत्यंत जर्जर शरीर वाली दुखी और रोती हुई है । सरस्वती नदी के तट पर राजा परीक्षित उस बैल से कहते है कि हे बृषभदेव ! तुम साक्षात् धर्म हो ! सतयुग में तप, पवित्रता, दया और सत्य तुम्हारे ये चारो चरण ठीक थे, अब केवल सत्य के सहारे तुम चल रहे हो उसे भी असत्य के आश्रय घमण्ड गर्व और अहंकार से यह कलियुग ग्रास कर लेना चाहता है अर्थात धर्म सत्यस्वरूप है । तुलसी दास जी ने भी कहा है - 'धर्म न दूसर सत्य समाना''
रामचरित मानस में बालि भगवान राम से कहता है- 'धर्म हेतु अवतरेहु गोसाई,मारेहु मोहि व्याध की नाई ।' अर्थात् आपका (परमात्मा) अवतरण धर्म की स्थापना के लिये हुआ है परन्तु आपका मुझे छिप कर मारना तदनुरूप नही है , यह उचित नही है । यहां पर धर्म 'न्याय' का वाचक है अर्थात धर्म न्याय स्वरूप है ।
धर्म शब्द कब अस्तित्व में आया यह कहना कठिन है परन्तु मानव सभ्यता के विकास क्रम में बेद प्राचीनतम गयान के स्रोत है । स्मृति ,आरण्यक, ब्राह्मण तथा उपनिषद वेदांग कहे जाते है इन सब में कही न कही धर्म शब्द आया है । मनुस्मृति में धर्म को दस लक्षणों वाला बताया गया है -" धृतिः क्षमा दमोस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह,धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम् ।" धर्म शब्द अतिप्राचीन काल से प्रचलित होने के कारण श्रीमद्भागवत कार ने उसे सनातनधर्म कहा है । भागवत में युद्धिष्ठिर ने नारद ऋषि से पूछा कि सनातनधर्म क्या है ? वहां नारद जी व्याख्या करते हुये कहते है -" वचोहि सनातनोधर्मम नारायन्मुखाछ्रुतम्" अर्थात् जैसा मैंने श्रीनारायण के मुख से सुना है वह बताता हूं । सनातनधर्म सत्य, दया, तप, पवित्रता,तितिक्षा, संयम, इंदरियनिग्रह, अहिंसा, त्याग, स्वाध्याय,संतोष, सरलता, सम्मान, विवेक,वैराग्य ,ब्रह्मचर्य,ब्रहमज्ञान, आत्मचिंतन, सभी में आत्मभाव, अन्नका समग्रता में उपयोग, इष्ट का चिन्तन संकीर्तन सेवा समर्पण तथा दास्यभाव , इन 22 लक्षणों वाला सनातन धर्म होता है ।
विश्व के प्राचीनतम ग्यान कोष ऋग्वेद में धर्म का पूर्ववर्ती शब्द 'ऋत' है ऋत और सत्य समानार्थी है । ऋतानुसार कर्म ही धर्म है । ऋग्वेद के अनुसार सूर्य ,अंतरिक्ष और पृथ्वी अपने धर्म के अनुसार प्रकाशदाता है ।प्रकृति की समस्त शक्तियां ऋत अनुसार धर्म का पालन करती है तदनुसार पूर्वजो ने धर्म की आचार संहिता गढ़ी जिसका सतत विकास हुआ ,यहां कर्तव्य का नाम ही धर्म है ।
भारत रत्न पी0वी0 काणे ने धर्म शास्त्र के इतिहास में लिखा है कि धर्म सम्प्रदाय का द्योतक नहीं है, वह जीवन की विधा या आचार संहिता है । वह समाज के रूप में कर्म को व्यवस्थित करता है । तदनुसार धर्म करणीय, अकरणीय और अनुकरणीय कर्मो की संहिता है । युग या कालक्रम के अनुसार धर्म की अवधारणा में परिवर्तन प्रकृति के सतत प्रवाहमान स्वाभाविक परिवर्तन के अतिरिक्त अन्य कुछ नही है ।
शब्द शास्त्र के अनुसार ' धारणातधर्मः से धर्म वह तत्व है जिसे प्रकृति ने नित्य धारण किया हुआ है, अर्थात् मनुष्य ही नही अपितु जीव मात्र और जड़ जगत भी धर्म से शासित है । धर्म के बिना संसार का अस्तित्व ही सम्भव नही है । विचार करने पर स्पष्ट अनुभव होता है कि अग्नि की दाहकता, जल की रसवत्ता, वायु की चंचलता, आकाश की व्यापकता, और पृथ्वी की गंधवत्ता इन सभी का स्वाभाविक धर्म है । इसीप्रकार जीव के भी बोलना, खाना, सूंघना,देखना, चलना, पहचानना, सोना आदि तत सम्बन्धी इन्द्रिय अंग के स्वाभाविक धर्म है । तात्पर्य यह है कि प्रकृति व्यवहार जगत में सहज और स्वाभाविक रूप में धर्म के रूप में व्यक्त होती है । वास्तव में प्रकृति स्वभाव से जड़ है व्यवहार चेतन के बिना सम्भव नही है । इसदृष्टि से शरीर चूँकि जड़ है उसके समस्त व्यवहार जिस चेतना के कारण होते है उसी का नाम ' मै ' है , यही स्व है इस स्व का धर्म ही जो अव्यक्त है व्यवहार में व्यक्त होता है ।इसी के लिये भगवान् गीता में कहते है -" स्व धर्मम् निधनम् श्रेयः परधर्मो भयावहः " अर्थात् स्वधर्म ही श्रेयस्कर है अन्य धर्म तो कर्म बन्धन में डालने वाले है इसलिए उन्हें भयकारी कहा है । व्यष्टि में जो स्वधर्म है वही समष्टि में लोक धर्म है व्यष्टि की परिमितता समष्टि में अपरिमितता में बदल जाती है और परिणाम स्वरूप स्वधर्म लोकधर्म में सर्वव्यापक हो जाता है । " आत्मवत् सर्व भूतेषु " में इसी लोकधर्म की अभिव्यक्ति है ।
वर्तमान समय ही नही पूर्व काल में भी इस सहज धर्म के बोध के लिये विद्वानो और ग्यानी जनो ने जिन साधनो और मार्गो की विधा सामान्यजन के लिये प्रकाशित की की वह पंथ या सम्प्रदाय कहलाया परन्तु अग्यानतावस लोगो ने उसे ही धर्म समझ लिया और नानाविध नामो से धर्म के नाम पर समाज, देश और विश्व अनेकता के गर्त में डूबा हुआ है । अपने अपने मत को श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिये तर्क ही नही तो कुतर्को कभी सहारा लिया जा रहा है । इसप्रकार धर्म का लोकोपकारी स्वरूप तिरोहित हो गया और ईर्ष्या, द्वेष, अहंकार आदि अधर्म का विस्तार हो रहा है । धर्म के साथ ईसाई, मुस्लिम, पारसी, यहूदी आदि शब्दों को जोड़ कर धर्म के मर्म को नही समझा जा सकता ,हिन्दू शब्द देश वाचक है जो सनातन धर्म के उद्गम क्षेत्र की सीमा बताता है काल क्रम से हिन्दू सनातन का पर्याय बन गया अस्तु हिन्दूधर्म कोई मत या सम्प्रदाय नही कहा जा सकता है ।यह एक जीवन विधा की व्याख्या करता है जो धर्म के मर्म को हृदयंगम कराता है ।
इस लेख में धर्म का मर्म जानने हेतु एक लघु सार संक्षेप प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है जिससे सुधी पाठक अपना पाथेय स्वविवेक से प्राप्त कर सके और कल्याण हेतु धर्माचरण में स्थिर हो सके ।
शुभ कामनाओ सहित आपका -
डा0 दयानन्द शुक्ल
सचिव
वानप्रस्थ क्लब, लखीमपुर
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