वानप्रस्थ जीवन

                   वानप्रस्थ जीवन की महत्ता
         मानव जीवन को सार्थक और समाजोपयोगी बनाने के लिए भारतवर्ष के प्राचीन ऋषियो ने  आश्रम व्यवस्था की योजना की थी, जिसके अनुसार मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन काल खण्ड को चार भागो में विभक्त कर प्रत्येक कालावधि की आचार संहिता निर्धारित की गयी थी । 25वर्ष तक ब्रह्मचर्य, 25 से50वर्ष तक गृहस्थ, 50 से 75 वर्ष तक वानप्रस्थ तथा शेष जीवन सन्यास आश्रम के नियमो का पालन करते हुए  जीवन व्यतीत करने  की यह आश्रम विधा हजारो वर्षो तक गतिमान रही । यही नही  अपितु भारत  के स्वर्णिम अतीत के निर्माण में इस आश्रम व्यवस्था का महत्वपूर्ण योगदान रहा है ।धीरे धीरे यह आश्रम व्यवस्था काल के गर्त में समा गई परन्तु मनुष्य की वे चारो अवस्थाये आज भी है और भविष्य में भी रहेंगी । आश्रमो के संस्कार अब लुप्त हो चुके है  जिसके परिणाम स्वरूप, स्वयं के साथ सामाजिक एकात्मता का अभाव, अस्वस्थ और अनुशासनहीन जीवन तथा मानव काया की निर्थकता की ओर प्रवाहित जीवन दुःख-दैन्य और अशांति से परिपूर्ण है ।
          वर्तमान समय में आयुवृद्ध जन वरिष्ठ नागरिक नाम से पुकारे जाते है अस्तु वरिष्ठ नागरिको के जीवन की वैयक्तिक और सामाजिक महत्ता को रेखांकित करना यहां अभीष्ट है ।इस विषय पर विचार से पूर्व हमे यह समझना आवश्यक है कि जीवन शाश्वत है वर्तमान शरीर उस जीवन का एक पड़ाव मात्र है । जन्म और मरण की अवधि में दो बार ऊर्जा संचय काल आता है ।एक है - किशोरावस्था तक,जिसमे सञ्चित ऊर्जा का उपभोग व्यक्ति यौवन अवस्था को साधनसम्पन्न,सुखी,समुन्नत और स्वस्थ  रखने में करता है ।दूसरा - वृद्धावस्था का काल है, जिसमे सञ्चित ऊर्जा का उपभोग, व्यक्ति मरणोत्तर अवस्था (परलोक) में करता है । इन कालखण्डों मे जिसने आलस्य,प्रमाद,अग्यानता आदि में समय गवां दिया उसका लोक और परलोक दोनों दरिद्रता, दैन्य,बेवसी के गर्त में पड़कर नरक बन जाता है ।
        दृश्य जीवन की तरह अदृश्य जीवन भी है । स्थूल की अपेक्षा सूक्ष्म की शक्ति एवम् महत्ता कहीं अधिक होती है । अतः लौकिक जीवन की अपेक्षा पारलौकिक जीवन कई गुना अधिक महत्वपूर्ण है ।अतः मरणोत्तर जीवन को उत्कृष्ट बनाने के लिये बुढ़ापे में तैयारी उसीप्रकार आवश्यक है जैसे समुन्नत यौवन हेतु बचपन से किशोरावस्था तक। वृद्धावस्था में जो अदूरदर्शी मोह-ममता से ग्रस्त होकर लाचारी में जीते है वे चाहे पढ़ेलिखे हो या अनपढ़,वे सच्चे अर्थ में मूढ़मति ही है । अस्तु जिन्होंने अपनी ढलती आयु की महत्वपूर्ण अवधि सेवा, संयम,स्वाध्याय,स्वावलम्बन और साधना से जुड़कर समाज जीवन जीने की योजना की उन्होंने वास्तव में अपना परलोक तो संवारा ही साथ ही विश्व शांति के लिये भी उपयोगी भूमिका निभाई । वानप्रस्थियों के लिये जो शास्त्रीय विधान है तदनुसार उपासना,स्वाध्याय,संयम और सेवा, इन चार कार्यक्रमो में ऊर्जा संचय और अंतर्निहित शक्तियों को विनियोजित कर लेना चाहिये ।वरिष्ठ नागरिको के लिये उचित है वे घर-परिवार से अपना समय और मन जिस अनुपात में बचावे उसी अनुपात में इन चार कार्यो में लगावे ।
      वर्तमान परिस्थितियों में वनप्रांतों या एकांत में जाकर उपासना आदि साधना में लगना न तो उचित है और न सम्भव परन्तु उपासना तो होनी ही चाहिये, इससे मस्तिष्क स्वस्थ और मन शांत होता है । अतः देवालय या नगर के बाहर किसी खुले परिसर में सूर्योदय से पूर्व योग और उपासना का क्रम चलाया जा सकता है । स्वाध्याय से स्मृति और ज्ञान विकसित और रक्षित रहता है । संयम से तात्पर्य आहार विहार को नियंत्रित रखना है ।विशेष रूप से इन्द्रियों का संयम रखने का अनवरत प्रयत्न रहना चाहिये । चौथा कार्य सेवा का है । जनता में सद्भावना और सत्प्रवृत्तियो के जागरण हेतु देश काल परिस्थिति के अनुसार रचनात्मक कार्यो में लगना चाहिये ।
         वानप्रस्थ जीवन के संस्कार अगली पीढी के भविष्य को गढ़ने और सवांरने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है । इसे संस्कृति का प्राण कहा जा सकता है ।वरिष्ठ जनो के आचरण, व्यक्तित्व और कृतित्व से बाल एवम् युवा प्रेरणा प्राप्त करते है । अस्तु भावी स्वर्णिम भारत की संरचना में वरिष्ठ नागरिको के योगदान और भूमिका के लिये भी वानप्रस्थ जीवन की उत्कृष्टता का सतत चिंतन और प्रयत्न आवश्यक है ।

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