वेदान्त
' वेदान्त ' की मानवजीवन में भूमिका
वेद मानव सभ्यता के प्राचीनतम ग्रन्थ है जिनमे भौतिक अभ्युदय,सामाजिक सुव्यवस्था और पुरुषार्थ चिन्तन के साथ साथ शाश्वत शान्ति-सुख के मार्ग का निदर्शन भी किया गया है । इस दृष्टि से विद्वानों ने वेदों को, संहिता, कर्मकाण्ड और अध्यात्म इन तीन भागों में विभक्त किया है । अध्यात्म वेदों का अन्तिम विभाग होने से वेदान्त नाम से लोक में प्रचलित हुआ । सम्पूर्ण उपनिषद साहित्य वेद के इसी भाग के अंतर्गत आता है । ऋषियो ने चिन्तन, मनन और निदिध्यासन की लम्बी तपस्चर्या के अनन्तर साक्षात्कार किये गये ज्ञान को अपने अपने तरीके से अपने शिष्यो को दिया । इसीलिये शताधिक उपनिषदों का उल्लेख पाया जाता है । उपनिषद का अर्थ है -समीप बैठना, गुर के समीप शिष्य ने बैठकर यह ज्ञान प्राप्त किया । उपनिषदों की संवाद शैली इस अर्थ की पुष्टि करती है । वेदान्त शब्द का प्रचलन भारतीय दर्शन के विभाग के अनन्तर अधिक सामान्य हो गया क्योकि भारतीय षडदर्शनों में वेदान्त दर्शन ,दर्शनशास्त्र का अन्तिम सोपान है और यह विचार की सूक्ष्मता एवम् चिंतन की प्रगल्भता का निकर्ष है ।उन्नीसवीं सदी के युवा ऋषि स्वामी विवेकानन्द ने विश्व के समस्त बौद्धिक समुदाय को वेदान्त ज्ञान से न केवल प्रभावित किया अपितु भारत के तत्कालिक नैराश्य और विपन्नता को दूर करने का साधन बनाया । उनकी स्पष्ट घोषणा थी कि 21 वीं सदी भारत की होगी और उसका आधार विचार वेदान्त होगा ।
वेदान्त का प्रयोजन मानव को नित्य शाश्वत सुख की उपलब्धि कराना है । मनुष्य जीव जगत का एक ऐसा प्राणी है जिसे विवेक -बुद्धि नैषर्गिक रूप से प्राप्त है ,इससे वह सत् और असत् में पहचान करने में समर्थ है । प्राणी मात्र की एकान्तिक चाह सुख है इसलिये वह संसार में सदैव सुख खोजता रहता है । वह अनुकूलता में सुखी और प्रतिकूलता में दुखी होता है । चूँकि प्रति क्षण परिवर्तित होने वाले इस संसार में कोई भी स्थिति-परिस्थिति स्थाई नहीं है अतः समस्त पदार्थ , प्राणी और उनसे उतपन्न सम्बन्ध भी स्थाई नही है । चिरकाल से निरन्तर प्रवहमान इस प्राकृतिक सांसारिक गति के कारण तत्व का अनुसन्धान करने में मात्र मनुष्य ही समर्थ है । मनीषी ऋषियो ने अपने अनुसन्धान में पाया कि वह कारण तत्व सत्, चित् और आनन्द रूप है । सच्चिदानंद तत्व का विश्लेषण ही वेदांत है । अस्तु वेदान्त बोध से नित्य सुख अर्थात् आनन्द की अनुभूति की जा सकती है । आनन्द की स्थिति आने पर जीव की सांसारिक अर्थात् दैहिक अनुभूति का लॉप हो जाता है और वह पुनः इन्द्रिय जन्य अनित्य सांसारिक भोग-सुख की और वापस नहीं लौटता है । इस स्थिति में पूर्ण सन्तुष्टि उपलब्ध हो जाती है । पूर्णत्व का यह बोध वेदान्त का लक्ष्य है । वेदान्त कहता है - ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं, पूर्णात् पूर्णमुदच्यते पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ।
वेदान्त यह भी बताता है कि पूर्णत्व के इस बोध से कैसे सांसारिक ताप त्रय से जीव छूट सकता है । तिगुणमयी इस सृष्टि में कैसे जीव दैहिक भाव से विरत रहकर विकारी होते हुये भी अविकारी की भूमिका निभा सकता है । गीता के 'योगः कर्मसु कौशलम्' को कैसे जीवन में धारण कर जिया जा सकता है । समस्त मनवीयय विकारो राग, द्वेष आदि का आधार 'पर' के अस्तिव को स्वीकारने के कारण है । वेदान्त कहता है कि 'एकोहम् द्वितीयो नास्ति' ,' तत्वमसि ' और 'अह्मब्रह्मस्मि ' आदि महावाक्यों द्वारा उस पूर्ण का साक्षात्कार किया जा सकता है । साक्षात्कार के अनन्तर मानव में विकारी और क्षण भंगुर देह में मोह-ममता नही रहती अर्थात् अज्ञानान्धकार से निकलकर ज्ञान के प्रकाश से प्रदीप्त होकर व्यवहार करने लगता है । इस अवस्था में मनुष्य स्वयं के साथ ही लोक कल्याण का हेतु हो जाता है ।
जीवन की यही सार्थकता है कि हम वास्तव में जो है तदनुसार ही जियें । हम वास्तव में क्या हैं ? कौन है ? हमारा स्वरूप कैसा है ? यह हम जाने । वेदांत की व्यवहारिक जीवन में यही भूमिका है कि वह स्पष्ट करता है कि वास्तव में 'मैं' और 'मेरा' में एकता नही है । हम यह तो कहते है कि यह हाँथ मेरा है, यह आँख मेरी है, परन्तु मैं हाँथ हूँ, मैं आँख हूँ ,ऐसा कभी नही कहते ।' मैं' त्रिकाल बाधित होने से शत्, सतत प्रवहमान रहने से चित् और अविकारी-एकरस होने से आनन्द रूप हूँ । इस सत्य में जीने की कला सिखाने वाला दर्शन अर्थात् ज्ञान वेदान्त हमे देता है ।अंतर्राष्ट्रीय संस्था चिन्मय मिशन का स्पष्ट कथन है कि -'वेदांत एक तर्कसंगत और आदर्श जीवन जीने की कला है ' । 'एकम शत विप्रा बहुधा वदन्ति ' श्रुति वेदान्त के महत्व को जीवन में उसकी भूमिका को विवादों से परे कर प्रतिष्ठा प्रदान करती है ।
सार रूप में कहा जा सकता है कि वेदान्त, जीवन के रहस्य को विवेक की भूमि पर विकसित और प्रकाशित कर, जीवन को सार्थक बनाने की तर्कसंगत विधा है । जिसका अधिष्ठान विचार है ,वेदान्त रूपी अधिष्ठान पर आरूढ़ व्यक्ति प्रौढ़ और परिपक्व विचारों का स्वामी होता है ,वे विचार ही व्यवहारिक आचरण में व्यक्त होते है जिससे एक सत्व सम्मपन्न श्रेष्ठ समाज का निर्माण सम्भव है । अस्तु वेदांत लोक कल्याण का एक निश्चित और सशक्त माध्यम है ।
डॉ0 दयानन्द शुक्ल
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