"विद्या बिनु विवेक उपजाये..."

        'विवेक' बुद्धि का वह सूक्ष्म तत्व है जो वस्तु और अवस्तु, सत्य और असत्य, उचित और अनुचित जानने/पहचानने में समर्थ है । 'नीर-क्षीर विवेकात ' - अमरकोष के अनुसार जिस शक्ति से नीर और क्षीर को प्रथक प्रथक पहचान कर हँस केवल क्षीर को ग्रहण करता है उसे विवेक कहा गया है । सम्पूर्ण सृष्टि में मानवी सृष्टि की श्रेष्ठता का प्रमुख कारण भी मनुष्य में विवेक का होना ही है। विवेक की न्यूनता या अभाव ही बुद्धिमत्ता का मानक है । लोकाचार की दृष्टि से रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने विवेक की महिमा का वर्णन सूर्पणखा-रावण संवाद के प्रसंग के व्याज से किया है उसका उल्लेख यहां समीचीन है -

धुआँ देखि खरदूषन केरा। जाइ सुपनखाँ रावन प्रेरा॥

बोली बचन क्रोध करि भारी। देस कोस कै सुरति बिसारी।।

अर्थात -

खर-दूषण का विध्वंस देखकर शूर्पणखा ने जाकर रावण को दुत्कारा । वह बड़ा क्रोध करके वचन बोली- तूने देश और खजाने की सुधि ही भुला दी॥

वह आगे कहती है -

करसि पान सोवसि दिनु राती। सुधि नहिं तव सिर पर आराती॥

राज नीति बिनु धन बिनु धर्मा। हरिहि समर्पे बिनु सतकर्मा॥

बिद्या बिनु बिबेक उपजाएँ। श्रम फल पढ़ें किएँ अरु पाएँ॥

संग तें जती कुमंत्र ते राजा। मान ते ग्यान पान तें लाजा॥

अर्थात -

मदिरा पी लेता है और दिन-रात पड़ा सोता रहता है। तुझे खबर नहीं है कि शत्रु तेरे सिर पर खड़ा है? नीति के बिना राज्य और धर्म के बिना धन प्राप्त करने से, भगवान को समर्पण किए बिना उत्तम कर्म करने से और विवेक उत्पन्न किए बिना विद्या पढ़ने से परिणाम में श्रम ही हाथ लगता है।अर्थात विद्या तभी सार्थक है जब व्यक्ति विवेकशील हो,क्योंकि तभी वह उसका सदुपयोग व्यापक, सृजनात्मक एवं जनकल्याण के लिए कर पाता है, अन्यथा उसकी शाब्दिक उपस्थिति वैचारिक संकीर्णता को प्रवृत हो अनुपयोगी ही सिद्ध होती है। विषयों के संग से संन्यासी, बुरी सलाह से राजा, मान से ज्ञान, मदिरा पान से लज्जावान होकर पतित हो जाता है ।

वह यहीं नही रुकती और इसी क्रम में आगे कहती है -

प्रीति प्रनय बिनु मद ते गुनी। नासहिं बेगि नीति अस सुनी॥

नम्रता के बिना (नम्रता न होने से) प्रीति और मद (अहंकार) से गुणवान शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं, इस प्रकार नीति मैंने सुनी है॥6॥

इसप्रकार  बिना नीति के राज्य, बिना धर्म के धन, बिना भगवान को अर्पण किये सत्कर्म, बिना विवेक उत्पन हुए विद्या यानी चार वस्तुएँ कही गई हैं। फिर कहा गया कि इनके साथ यदि ये चार गुण न हों तो विद्या का पढ़ना, सत्कर्म का करना, धन और राज्य का पाना केवल श्रम मात्र है । अर्थात व्यर्थ है । यद्यपि इस प्रसंग में विवेक को विद्या का फल मानते हुये विवेचना की गयी है परन्तु यह स्पष्ट किया गया है कि समस्त लौकिक उपलब्धियों और सफलताओं की सिद्धि का अधिष्ठान विद्या तभी सार्थक है जब वह विवेक जाग्रत करने में समर्थ हो । विवेक के बिना जैसे व्यवहार में वैसे ही परमार्थ में भी सिद्धि प्राप्त नही होती है । विष्णु पुराण के श्लोक- "सा विद्या या विमुक्तये" के अनुसार विद्या वही है जो मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करने में समर्थ हो । अर्थात 'विवेक ' और 'मुक्ति' सजातीय हैं क्योंकि दोनों की जनक विद्या ही है। जिसमे सत्यासत्य का विवेक जाग्रत है वही मुक्त है । परमार्थ में 'विद्या' का अर्थ सत्य का बोध कराने से है जबकि व्यवहार में विद्या से तातपर्य लोकाचार सिद्ध करने से है । लोकाचार की विद्या परमार्थ में अविद्या है क्योंकि परमार्थ में लोक ही मिथ्या है । अतः लोक के समस्त व्यवहार, वस्तु ,सम्बन्ध और व्यक्ति सभी अनित्य हैं अस्तु असत हैं । परन्तु ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि इस असत- लोक का प्रदुर्भाव सत से ही है । लोक जड़-चेतन का ऐसा सम्मिलन है जिसका प्रथक प्रथक अनुभव दुसाध्य है । गोस्वामी जी लिखते हैं -

"जड़ चेतनहि ग्रन्थि परि गई

जदपि मृषा छूटत कठिनई"

दोनों का यह तादात्म्य वैसा ही है जैसा जल और दूध का ,पुष्प और उसकी सुगन्ध का । चेतन- शाश्वत, और जड़- विनाशी है।सत्यानुसन्धान में सर्वाधिक महत्वपूर्ण साधन विवेक ही है। विवेक से शाश्वत चेतन का अनुभव किया जा सकता है । अस्तु विवेक की जागृति परमार्थ सिद्धि के लिये अनिवार्य है। बिना विवेक की जागृति के जिज्ञाशु साधक का जीव- जगत सम्बन्धी संशय दूर नहीं हो सकता है । कागभुसुंडि जी गरुड़ जी को उपदेश करते हैं -

  "तबहि होइ सब संशय भंगा

   जब बहुकाल करिय सत्संगा "।।

सत्संग से विवेक जाग्रत होता है ।निष्कर्ष रूप में विवेक मनुष्य जीवन के सभी आयामो में सफलता का आधार है । इसके बिना मनुष्यत्व प्राप्त नहीं होता और मनुष्यत्व के बिना मनुष्य जन्म निष्फल ही कहा जायेगा । अस्तु प्रयत्न पूर्वक विवेक जागरण की साधना करनी चाहिये ।इस साधना में स्वाध्याय और सद्गुरु की शरण के साथ ही सात्विक आहार-विहार की जीवन शैली भी आवश्यक है ।


                             डा. दयानन्द शुक्ल

                      अध्यक्ष - वानप्रस्थ क्लब


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